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________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३७ .0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0000000000000000000 00 0 000. राणा भीमसिंह और आचार्य भारमल महाराणा भीमसिंह (वि०सं० १८३४-१८८५) को भी जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा थी। तेरापंथ के द्वितीय आचार्य भारमल जब वि०सं० १८७४-७५ में मेवाड़ में आये, तेरापंथ धर्म उस समय शैशव अवस्था में ही था; किन्तु आचार्य भारमल के प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं उनकी सैद्धान्तिक कट्टरता से प्रभावित होकर तेरापंथ के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी, इससे कुछ व्यक्ति आचार्य भारमल के विरोधी होगये और महाराणा भीमसिंह के कान भरने लगे। राजा कानों का कच्चा होता ही है, उन्होंने झूठी बातों पर विश्वास करके आचार्य भारमल को उदयपुर से निष्कासित कर दिया; किन्तु देवयोग से संयोग ऐसा बना कि मेवाड़ में प्राकृतिक प्रकोप हो गया, सर्वत्र हाहाकार मच गया। महाराणा को अपनी गलती का अहसास हुआ तथा मेवाड़ के राणाओं की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का स्मरण हुआ । उन्होंने तत्काल पत्र भेजकर आचार्य भारमलजी को पुन: उदयपुर पधारने का विनम्र अनुरोध किया, यथा श्री एकलिंगजी श्री बाणनाथजी श्रीनाथजी स्वस्ति श्री साध भारमलजी तेरेपंथी साध श्री राणा भीमसिंघ री विनती मालूम है । क्रपा करै अठै पधारोगा। की दुष्ट वै दुष्टाणो कीदो जी सामुन्हीं देखेगा। मा सामु वा नगर में प्रजा है ज्यांरी दया कर जेज नहीं करेगा । वती काही लषु । ओर स्माचर स्हा स्वलाल का लष्या जाणेगा। संवत् १८७५ वर्षे आषाढ़ बीद तीज शुक्रे । इसके बाद भी आचार्य भारमलजी का उदयपुर आना न हुआ, तब वि० सं० १८७६ में पोष वदि ११ को महाराणा ने एक पत्र और लिखा।' दूसरे पत्र के बाद आचार्य भारमलजी तो उदयपुर नहीं आये किन्तु मुनि हेमराज व रामचन्द्र आदि तेरह साधुओं को उदयपुर भेजा। एक मास तक ये उदयपुर में ही रहे और इस अवधि में ग्यारह बार महाराणा भीमसिंह स्वयं चलकर इन साधुओं के पास आये और धर्मचर्चा का लाभ प्राप्त किया। महाराणा जवानसिंह एवं मुनि ज्ञानसारजी मुनि ज्ञानसार अपने समय के महान राजस्थानी कवि थे। खरतरगच्छ के आचार्य जिनलाभसूरि ने वि० सं० १८२६ में इन्हें दीक्षा दी। इनका दीक्षा के पूर्व का नाम नारायण था लेकिन दीक्षा के पश्चात् भी अपनी कविताओं में अपने आपको इसी नाम से सम्बोधित किया। कहा जाता है, एक बार आप उदयपुर पधारे, आपकी सिद्धियों एवं सद्गुणों की प्रसिद्धि सर्वत्र व्याप्त थी। जब राणा की कृपारहित राणी ने सुना तो वह भी प्रतिदिन श्रीमद् के चरणों में आकर निवेदन करने लगी कि गुरुदेव कोई ऐसा यन्त्र दीजिए, जिससे महाराणा की अप्रसन्नता दूर हो, श्रीमद् ने बहुत समझाया लेकिन राणी किसी तरह नहीं मानी और यन्त्र देने के लिये विशेष हठ करने लगी। तब एक कागज पर कुछ लिखकर दे दिया, राणी की श्रद्धा एवं मुनिजी की वचनसिद्धि से ऐसा संयोग बना कि महाराणा की राणी पर पूर्ववत् कृपा हो गई। जब यन्त्र वशीकरण की बात महाराणा तक पहुँची और उन्होंने पूछताछ की तो श्रीन ने कहा, 'राजन ! हमें इन सब कार्यों से क्या प्रयोजन ?' जाँच करने के लिये यन्त्र खोलकर देखा गया तो उसमें लिखा था कि 'राजा राणी सं राजी हवे तो नाराणो ने कई, राजा राणी सं रूसे तो नाराणो ने कई' इस पर राणाजी आपकी निस्पृहता और वचनसिद्धि से बड़े प्रभावित हुए एवं अनन्य भक्त हो गये। १. तेरापंथ का इतिहास, पृ० १५२. २. वही, पृ० १५४. ३. ज्ञानसार ग्रन्थावली, श्री अगरचन्द जी नाहटा, पृ० ६१. Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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