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________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३३ . .............. ..000000000000000000000000000000000000 परिवार ने आचार्य सोमसुन्दरसूरि के काल में कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई, संघ निकाले, ग्रन्थ लिखवाये, चित्तौड़ में श्रेयांसनाथ का मन्दिर बनवाया । श्रेष्टी गुणराज चित्तौड़ एवं अहमदाबाद का रहने वाला था, जिसने विशाल संघ निकाला, जिसमें राण कपुर के मन्दिर बनाने वाला धरण शाह भी शामिल था। गुणराज गुजरात के बादशाह की सभा का सदस्य था एवं उसका पुत्र महाराणा मोकल की सभा का सदस्य। राणकपुर के प्रसिद्ध मन्दिर की प्रतिष्ठा भी महाराणा कुम्भा के राज्यकाल वि०सं० १४९६ में हुई। आचार्य श्री सोमचन्द्रसूरि ने इस मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। इस मन्दिर में राणा कुम्भा ने पाषाण के दो स्तम्भ बनवाये । राणकपुर के मन्दिर के निर्माण सम्बन्धी यह प्रमाण मिलता है कि राणा कुम्भा के प्रीतिपात्र शाह गुणराज के साथ रहकर नदिया ग्राम निवासी प्राग्वाट वंशी सागर के पुत्र कुरपाल के बेटे रत्नसा एवं धन्नासा ने "त्रैलोक्यदीपक" नामक युगादीश्वर का ४८००० वर्गफीट जमीन पर एवं १४४४ विशाल प्रस्तर स्तम्भों पर सुविशाल चतुर्मुख मन्दिर महाराणा की आज्ञा पाकर बनवाया।' इसी तरह से राणा कुम्भा के प्रीतिपात्र शाह गुणराज ने अजाहरी (अजारी), पिण्डरवाटक (पिण्डवाड़ा) तथा सालेरा के नवीन मन्दिर बनवाये और कई पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । महाराणा कुम्भा के श्रेय से कुम्भा के खजांची वेला (वेलाक) ने वि० सं० १५०५ में चित्तौड़ में शान्तिनाथ का सुन्दर मन्दिर बनवाया (एक मतानुसार जीर्णोद्धार कराया), जिसको इस समय शृंगारचंवरी कहते हैं । इस मन्दिर के पास वि० सं १५१० के दो और जैन मन्दिर हैं। इसी तरह से राणा कुम्भा के समय के बसन्तपुर, मूला आदि स्थानों के जैन मन्दिर विद्यमान हैं । मचिन्द दुर्ग पर महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित जैन मन्दिर होने का भी प्रमाण यह मिलता है कि महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४ से १७०६) ने इस मन्दिर के जीर्णोद्धार हेतु फरमान निकाला। राणा कुम्भा ने अचलगढ़ (आबू) का दुर्ग बनवाया। अचलगढ़ के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा भी इसी समय वि० सं० १५१८ में हुई । राणा कुम्भा के समय के कई शिलालेख भी मिलते हैं जिनसे उसका जैन धर्म के प्रति श्रद्धा एवं संरक्षण स्पष्टतया प्रकट है, इन शिलालेखों में वि० सं० १४६१ कार्तिक सुदि ४ का देलवाड़े का शिलालेख, वि० सं० १४६४ माघ सुदि ११ का नागदा के अदबुद जी (शान्तिनाथजी) की अतिविशाल मूर्ति के आसन का शिलालेख, वि० सं० १४९६ का राणकपुर मन्दिर का शिलालेख, वि० सं० १५०६ असाढ़ सुदि २ का देलवाड़ा (आबू) का शिलालेख, वि०सं० १५१८ वैसाख विद ४ का . अचलगढ़ के जैन मन्दिर में आदिनाथजी की विशाल प्रतिमा के आसन पर खुदा शिलालेख मुख्य हैं। राणा कुम्भा ने आबू पर जाने वाले जैन यात्रियों पर जो कर लगता था उसे उठाकर यात्रियों के लिये बड़ी सुगमता कर दी जिसकी पुष्टि आबू देलवाड़ा के विमलशाह एवं वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा बनाये गये मन्दिरों के मध्य चौक में एक वेदी पर लगे शिलालेख से होती है जिसमें आबू पर जाने वाले यात्रियों के दाण, मुंडिक, वालावी (यानि राहदारी, प्रति यात्री से लिये जाने वाला कर), मार्ग रक्षा कर तथा घोड़े, बैल आदि का जो कर लिया जाता था उसे माफ करने का उल्लेख है । उस समय आबू प्रदेश राणा कुम्भा ने ले लिया था, जो मेदपाट, मेवाड़ का ही एक अंग था। राणा कुम्भा आचार्य सोमसुन्दरसूरि, कमलकलशसूरि, सोमजयसूरि के भक्त थे। तपागच्छ के सोमदेव वाचक का राणा कुम्भा बड़ा सम्मान करते थे। हीराचन्दसूरि को महाराणा कुम्भा गुरु मानता था, इनका राजसभा में बड़ा सम्मान था और इन्हें 'कविराज' की उपाधि भी दी थी। राणा कुम्भा के समय के निम्न परवाने से कुम्भा के जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है १. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ६२५. २. भावनगर इंस्क्रिप्शन, पृ० ११४, ११५, ३. राजपूताना म्यूजियम की रिपोर्ट, ई०स० १९२०-२१, पृ० ५, लेख सं० १०. ४. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ६३०-६३६. ५. वीरभूमि चित्तौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० ११८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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