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________________ - - -. - -. - -. -. -. -. -. -. -. -. -. - . - . -. - . - . - . -. -. - . - . -. - . -. - . -. - . -. - . - . विदेशों में जैनधर्म D डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर', [अध्यक्ष, पाली-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर (म० रा०)] जैनधर्म के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उसने साधारणत: अपनी जन्मभूमि की सीमा का उल्लंघन नहीं किया। उसका प्रचार-प्रसार उतना अधिक नहीं हो पाया जितना बौद्धधर्म का हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि उसका आचार-शैथिल्य बौद्धधर्म की अपेक्षा बहुत कम रहा। आचार के क्षेत्र में दृढ़ता और प्रगाढ़ता होने के कारण वह विदेशी किंवा शुद्ध भौतिकवाद में पती-गुती पाश्चात्य संस्कृति को अन्तर्भूत नहीं कर सका । अन्तर्भूत करने की आवश्यकता थी भी नहीं। आवश्यकता थी अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने की । यह प्रस्तुति किसी सीमा तक विदेशों में हुई है और वहाँ की संस्कृति को जैनधर्म ने प्रभावित किया भी है। इसे हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-प्राचीन युग और आधुनिक युग । १. प्राचीन युग भारत की भौगोलिक सीमा बदलती रही है। प्राचीन काल में अफगानिस्तान, गांधार (कन्दहार तथा ईरान का पूर्वी भाग), नेपाल, भूटान, तिब्बत, कश्मीर, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों को भारत के ही अन्तर्गत माना जाता था।' जावा, सुमात्रा, वाली, मलाया, श्याम आदि देश भारत के उपनिवेश जैसे थे। चीन, अरब, मिश्र, यूनान आदि कुछ ऐसे देश थे जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था। विदेशों से थल और जल मार्गों द्वारा व्यापार हुआ करता था। इसलिए आवागमन के साथ सांस्कृतिक तत्त्वों का भी आदान-प्रदान लगा रहता था । यही कारण है कि आज के सुदूर पूर्ववर्ती देशों और मध्य एशिया के विभिन्न भागों में भारतीय संस्कृति के विविध रूपों का अस्तित्व मिलता है । जैन संस्कृति का रूप भी यहाँ उपलब्ध है। श्रीलंकार जैनधर्म श्रीलंका (Ceylon) में लगभग आठवीं शती ई०पू० में पहुंच चुका था । उस समय उसे रत्नद्वीप, सिंहद्वीप अथवा सिंहलद्वीप कहा जाता था । दक्षिण की विद्याधर संस्कृति का अस्तित्व सिंहलद्वीप के ही पालि ग्रन्थ महावंश में उपलब्ध होता है। वहाँ कहा गया है कि विजय और उनके अनुयायियों को श्रीलंका में यक्ष और यक्षिणियों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा था। बाद में पाण्डुकाभय ४३८-३६८ ई०पू०) नरेश उनका सहयोग लेने में १. आदिपुराण, १६. १५२-५६. २. श्रीलंका वर्तमान सीलोन है या वह कहीं मध्यप्रदेश अथवा प्रयाग के आसपास थी, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। मेरी दृष्टि में वर्तमान सीलोन ही श्रीलंका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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