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________________ मोसियां की प्राचीनता १३ ..-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-..... ................-.-.-.-.-.-.-. -.-. -. -.-.-.-. के साथ हो लिया । चलते-चलते उनकी भेंट बैराट-नरेश संग्रामसिंह से हुई जिसने उपलदेव की वीरता एवं साहस से प्रभावित होकर अपनी पुत्री की सगाई उससे करदी। उपलदेव बैराट से ढेलीपुर (दिल्ली) पहुँचा। रास्ते में उसने घोड़े बेचने वाले व्यापारियों से इस शर्त पर कुछ घोड़े' खरीद लिये कि उनके मूल्य का भुगतान वह अपने सामाज्य की स्थापना कर लेने के उपरान्त करेगा। दिल्ली पर उस समय साधु नाम का राजा शासन करता था। वह छ: मास तक अन्तःपुर में रंगरेलियां मनाया करता था और वर्ष के शेष छ: मास प्रशासन पर ध्यान देता था । उपलदेव प्रतिदिन राजदरबार में जाता और एक घोड़ा उपहार देता । अन्ततः जब राजा को इस बात का पता चला तो उसने उपलदेव को बुलाया। उसके अपने राज्य की स्थापना के निश्चय की जानकारी प्राप्त कर उसने उपलदेव को एक घोड़ी दी और कहा कि जहाँ भी वह बंजर धरती देखे, अपने लिए नए नगर की नींव रख ले । एक शकुनी ने, जो उस समय पास ही बैठा था, उपलदेव को उस स्थान पर नगर की स्थापना करने की सलाह दी जहाँ घोड़ी पेशाब करे । ऊहड़ को साथ लेकर उपलदेव वहाँ से चल पड़ा और अगले दिन प्रात: जब घोड़ी ने मण्डोर से कुछ आगे पहुँचने पर बंजर जमीन पर पेशाब किया तो वह वहाँ रुक गया। वहीं उसने अपने आप को नगर की नींव रखने के कार्य में लगा दिया । पृथ्वी के उसीली (गीली, ओसयुक्त) होने के कारण उसने नये नगर का नाम 'उएस पट्टन' रखा। कालान्तर में भीनमाल से बहुत से लोग वहाँ आकर बस गए कि नगर बारह योजन के क्षेत्रफल में फैल गया। उपरिवर्णित अनुश्रुतियों में कल्पना एवं अतिशयोक्ति का पुट होने पर भी एक बात समान है कि ओसियां नगर की स्थापना (या पुनःस्थापना) उपलदेव नामक राजकुमार ने की। यह स्थापना कब की गई इस सम्बन्ध में तीन मत विशेषतया प्रचलित हैं: १. जैन ग्रन्थों एवं जैन आचार्यों के मतानुसार वीर निर्वाण संवत् ७० में अर्थात् लगभग ४५७ ईसा पूर्व में भगवान् पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वहाँ के राजा को प्रतिबोधित कर वीर मन्दिर की स्थापना की थी। स्पष्टत: ओसियां नगर उस समय राजधानी था और पर्याप्त समय पहले बसा होगा। २. भाटों, भोजकों और सेवकों की वंशावलियों से पता चलता है कि विक्रम संवत् २२२ (बीये बाइसा) में राजा उपलदेव के समय में ओसियां में रत्नप्रभसूरि के उपदेश से ओसवाल जाति के मूल गोत्रों की स्थापना हुई। १. विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार ५५ या १८० घोड़े। २. दिल्ली और ओसियां की दूरी लगभग सवा छ: सौ किलोमीटर है जिसे घोड़ी द्वारा एक रात में तय नहीं किया जा सकता। ३. कहा जाता है कि ओसियां नगर जब अपनी कीर्ति एवं समृद्धि के शिखर पर था तो मथानिया गांव-ओसियां के दक्षिण-दक्षिण-पूर्व में २५ किलोमीटर दूर-इसकी अनाज मण्डी था, २० किलोमीटर दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में तिवरी गांव इसका तेलीवाड़ा था, १० किलोमीटर दूर खेतार गांव खत्रीपुरा था और लगभग चालीस किलोमीटर उत्तर में स्थित लोहावर इसकी लोहामण्डी था एवं दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में लगभग ४-५ किलोमीटर दूर घटियाला ग्राम इसका एक प्रमुख द्वार था। उपकेशगच्छ पट्टावलि नं. १ के अनुसार नगर की लम्बाई १२ योजन तथा चौड़ाई ६ योजन थी। ४. सुखसम्पतराय भण्डारी तथा अन्य, ओसवाल जाति का इतिहास, भानपुरा, १६३४, पृ० १-२० । ५. अठारह गोत्र ये हैं-परमार, सिसोदिया, राठौड़, सोलंकी, चौहान, सांखला, पड़िहार, बोड़ा, दहिया, भाटी मोयल, गोयल, मकवाणा, कछवाहा, गौड़, खरबड़, बेरड़ तथा सौखं । तुलना करें-सदाशिव रामरतन दरक माहेश्वरी, वैश्यकुलभूषण, मुबई, सं० १९८०, पृ० १२३–प्रथम साख-पंवारसेस सीसोदसिंगाला ।। रणथम्भा राठौड़ वंश चंवाल बचाला ॥ दया भाटी सौनगरा कछावा धन गौड़ कहीजे ॥ जादम झाला जिंद लाज-मरजाद लहीजे ॥ खरदरापाह औपेखरा लेणां पहाजलखरा । एक दिवस इता महाजनहुवा सूरबड़ाभिडसाखरा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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