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________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त ६५३ ......................................................................... अभिव्यक्त होती है। शुभ नाम कर्म के प्रभाव से मनोज्ञ और सातिशय अनुपम शरीर का लाभ होता है । अशुभ नाम कर्म के कारण निन्दनीय असुहावनी शारीरिक सामग्री उपबन्ध होती है । जो लोग जगत् का निर्माता किसी विधाता या स्रष्टा को बताते हैं, यथार्थ में वह इस नामकर्म के सिवाय और कोई वस्तु नहीं है। आचार्य भगवज्जिनसेन ने इस नामकर्म को ही वास्तविक ब्रह्मा, स्रष्टा अथवा विधाता कहा है विधिः स्रष्टा विधाता च, दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञयाः कर्मवेधसः ॥ -महापुराण ३७।४ एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त चौरासी लाख योनियों में जो जीवों की अनन्त आकृतियाँ हैं उनका निर्माता यह नामकर्म है। नामकर्म के मुख्य भेद ४२ तथा उनके उपभेदों की अपेक्षा ६३ उत्तरप्रकृतियाँ मानी गई है। यहाँ पर भी विचारणीय है कि इन कर्मों का कर्ता स्वयं जीव ही है तथा शुभाशुभ फल का भोक्ता भी यही चेतन है। यह जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। जैन सिद्धान्त का यही मत है जो पूर्णरूपेण तर्कसंगत होने से मान्य है । इस सिद्धान्त में अन्य के हस्तक्षेप को स्वीकार करना सर्वथा अनुचित है। यह जीव संसार में अकेला भ्रमण करता हुआ कर्मों का बंध करता है । कविवर भागचन्द्र ने इस सत्य को इस रूप में चित्रित किया है जीव तू भ्रमत सदैव अकेला । संग साथी कोई नहीं तेरा । अपना सुख दुःख आप ही भुगतै, होत कुटुम्ब न भेला। स्वार्थ भये सब बिछुर जात हैं, विछट जात ज्यों भेला ॥१॥ रक्षक कोई न पूरन व जब आयु अंत की बेला। फूटत पार बँधत नहिं जैसे, दुद्धर जल को ठेला ॥२॥ तन धन जोवन विनश जात, ज्यों इन्द्रजाल को खेला । भागचंद इमि लखकर भाई, हो सतगुरु का चेला ॥३॥ जीव तू भ्रमत सदैव अकेला ॥ दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है क्योंकि सब जीवों का जीवन-मरण, सुख-दुःख स्वयंकृत व स्वयंकृत-कर्म का फल हैं । एक को दूसरों के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्ता मानना अज्ञान है, सो ही कहा है सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय-कर्मोदयान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्। . . अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य, कर्यात्पुमान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ॥ यदि एक प्राणी को दूसरे के सुख-दुःख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे, क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या हमें सुख दे सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या बुरा कर सकता है ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ है। क्योंकि उनके फल को भोगना आवश्यक तो है ही नहीं? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही होगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है। इसी बात को अमितगति आचार्य ने इस प्रकार व्यक्त किया है स्वयं कृतः कर्म यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभं । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ १. श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर : जैन शासन, पृ० २२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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