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________________ इसके आगे 'सहस्रपरिवत्सरमितकालजात-कृष्णवियोगजनिततापक्लेशानन्दतिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्त:करणानि तश्चि दारागारपुत्राप्तवित्तेहपराणि आत्मना सह समर्पयामि'-(असंख्य वर्षोंका समय व्यतीत हो गया है। इस कारण, भगवान्से वियुक्त होनेका जो ताप क्लेश होना चाहिए वह तिरोहित है वैसा मैं (शरण प्राप्त जोव) देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तः करण और इनके धर्मों, एवं स्त्री, घर, पुत्र, रिश्तेदारों, संपत्ति, ऐहिक और पारलौकिक सभीका आत्मा सह भगवान् श्रीकृष्णको समर्पण करता हूँ) इतना भाग स्पष्टताके लिए संमिलित किया। श्रीआचार्यजीके पौत्र श्रीगोकुलनाथजीके घरमें 'भगवते कृष्णाय श्रीगोपीजनवल्लभाय ऐसा कहा जाता है। 'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' (भ. गो० १८१५४) और 'ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।' (भाग०,९-४-६५), 'दारान् सुतान् गहान् प्राणान् यत् परस्मै निवदेनम् ।' (भाग० ११-३-२८), एवं 'कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्धयात्मना वानुसतस्वभावात् । करोति यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेत् तत् ।' (भाग० ११-२-३६)-इन वाक्योंका ही यह संक्षेप है। यों कुछ भी नयी बात न कहते प्राचीन प्रणालीका ही पुनरुज्जीवन किया गया है। दामोदरदास हरसानीको प्रथम दीक्षा देकर फिर तुरन्त कृष्णदास मेघन, और नये शिष्यों-प्रभुदास जलोरा क्षत्रिय, रामदास चौहाण आदि वैष्णवोंको दीक्षा दी। इस कार्यकी विशिष्टताका कुछ खयाल 'तत्त्वार्थ दीपनिबन्ध'के दूसरे प्रकरणके 'सर्वत्यागेऽनन्यभावे....' (२१८-२१९) आदि दो श्लोकों में मिलता है। ___ सामान्य भक्तिमार्ग-भागवतमार्गसे आगे बढ़कर श्री आचार्यजीने विशिष्ट भक्तिमार्ग-पुष्टिमार्गका आविष्कार किया, और अब आप ही इस मार्ग के प्रधान सुकानी बने । इनके पूर्व सिद्धान्तमें साधन भक्ति और शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद था, माहात्म्यज्ञानसे पूर्ण भक्तिकी चरम कोटिमें अक्षर ब्रह्मके साथ किसी भी एक प्रकारका मोक्ष में ही इतिकर्तव्यता थी। अब जो नया आविष्कार हआ वह किसी भी प्रकारके ज्ञानसे निरपेक्ष निःसाधन प्रेमलक्षणाके फलस्वरूप किसी भी दशामें भगवल्लीलाका साक्षात् अनुभव और देहान्तके बाद भगवल्लीलासहभागिताकी कोटिका था। श्रीगोवर्धनधरण श्रीनाथजी श्रावण शुक्ला द्वादशीके पुष्टिमार्गके नये आविष्कारको सम्पन्न करके आप शिष्योंके साथ श्रीगोवर्धन पर्वतपर पहुंचे और सबसे प्रथम मयूरपिच्छका मुकुट एवं पीताम्बर काछनीका श्रीगोवर्धनधरणके स्वरूपको श्रृंगार करके भोग धराया। संप्रदायमें उस दिनसे श्री का श्रीनाथजी नाम आपने प्रसिद्ध किया। आचार्यधोने पुष्टिमार्गीय सेवाप्रकार-नन्दालयकी भावनासे शुरू किया और श्री"की सेवाका अधिकार रामदास चौहाणको एवं कीर्तनकी सेवाका कुम्भनदासजीको सौंपा। प्रभुको गायों पर बहुत प्रेम है इस कारण अपनी ओरसे एक गाय खरीद करवाकर श्री.""की सेवाके लिए दी। और थोड़े ही समयमें वहाँ बड़ी गोशाला बन गई। द्वादशवनी ब्रजपरिक्रमा इस असामान्य कार्य को सम्पन्न करके आपने भगवान् बाल कृष्ण के विहार स्थान ब्रजभूमिके वारह वनोंकी भक्ति भावपूर्ण परिक्रमाका वि० सं० १५६३ (ई० स० १५०६) व्रज आश्विन वदि १२ के दिन मथुरामें विश्रामधाटपर संकल्प करके गोरको साथ लेकर आरम्भ किया । आगे जाकर श्रीगोकुलनाथजीके व्रज चौरासी कोस-परिक्रमा प्रघात पाड़ा इसका यह द्वादशवनी परिक्रमा मूल था। परिक्रमामें जब आप भांडरी बनमें आये 'तब वहाँ मध्व संप्रदायके विजयनगर वाले आचार्य व्यासतीर्थजी मिले। उन्होंने श्रीवल्लभाचार्यजीके २८६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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