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________________ प्रथम लघुयात्रा श्रीवल्लभ एवं रामचन्द्र विजयनगरमें आकर मौसालमें स्थिर हए। यहाँ पिताजीके वार्षिक श्राद्धको पूर्णकर पिताजीकी यात्राकी अपूर्ण इच्छा पूर्ण करने के लिए और माताजीको भी यथापुण्यका लाभ देनेके लिए अल्प समयके लिए सं० १५४५ (ई० स० १४८८)में प्रवासमें आगे बढ़े। प्रथम कांकरपाढ़ आये और माताजी की शोकमुक्ति करवाई। वहाँसे अब आप, श्रीमाताजी और सेवक कृष्णदास मेघन तीन आगे बढ़कर श्रीपुरुषोत्तम शेष श्रीजगदीशमें पहुंचे। उस समय ओरिस्सामें गजपति पुरुषोत्तम नामक परम धार्मिक राजा था। श्रीजगन्नाथपुरीमें उसके दरबारमें वाद-विवाद चलता था कि-(१) मुख्य शास्त्र क्या, (२) मुख्यदेव कौन, (३) मुख्य मन्त्र क्या, और (४) मुख्य कर्म क्या ? श्रीजगदीश मन्दिरके विशाल प्रांगणमें वादविवाद हो रहा था उसी समय अकस्मात् श्रीवल्लभ श्रीजगदीशके दर्शनके लिए आ पहुंचे। यह बाल ब्रह्मचारी श्री के दर्शनके बाद कुतूहलवशात् उस वादसभामें बैठे । प्रश्न सरल थे, किन्तु वे गम्भीर । श्रीवल्लभको आश्चर्य हआ कि यहाँ श्रीजगदीशके मन्दिरमें ही बैठकर इस प्रकारकी बालिश चर्चा होती है। इन प्रश्नोंका उत्तर मात्र चतुराईको अपेक्षा तीर्थगोरकृष्णजीको पूछने लगे कि मैं इस चर्चा में भाग ले सक? गोरने राजाजीसे निवेदन किया। अनुज्ञा मिलनेपर श्रीवल्लभ खडे हए और साश्चर्य निवेदन किया कि या आस्तिक लोग इकट्ठे हुए हैं। हमारी सबोंकी अपने शास्त्रोंमें श्रद्धा है । वेद-उपनिषद्, गीताजी और ब्रह्मसूत्रोंमें हमारी पूरी श्रद्धा है। इन तीन प्रस्थानोंमें हमारी गीताजीकी ओर परम श्रद्धा है। क्या गीताजी पन्द्रहवें अध्यायके अन्त भागमें जो कहती है, क्या हमें वह बाध्य नहीं है ? इस बातको हम प्रमाणके रूपमें यदि स्वीकार करते हैं तो अपने आपसे ऊपरके चार प्रश्नोंका उत्तर मिल जाता है; जैसा कि एक शास्त्रं देवकीपुत्रगीतं, एको देवो देवकीपुत्र एव । मन्त्रोऽप्येकस्तस्य नामानि यानि, कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥ (१) भगववान् देवकीनन्दन श्रीकृष्ण द्वारा गाई हुई गीता एकमात्र शास्त्र, (२) वे देवकीनन्दन श्रीकृष्ण एकमात्र देव, (३) उनके जितने नाम वे एकमात्र मन्त्र, और (४) उनकी सेवा वह एकमात्र कर्म । इस निर्णयात्मक कथनसे सभी लोगोंके मनका उत्तमोत्तम समाधान करके श्रीवल्लभ तुरन्त वहाँसे निकल गये, मानव समूहमें सम्मिलित हो गये। इस बालसरस्वतीको यश या विजय या प्रतिष्ठाका कोई खयाल नहीं था. न मानकी कोई भावना भी अब तक खडी नहीं हुई थी। वे दूसरे दिन यात्रा में इस प्रवासमें ही वर्धामें उनको एक दूसरे महत्त्वके शिष्य-सेवक आ मिला, जो दामोदरदास हरसानीके नामसे प्रसिद्ध है। [इस ऐतिहासिक प्रसंगका निर्देश जगन्नाथपुरीके इनके गोर गुच्छिकार कृष्णने वि० सं० १५९५ (ई० स० १५३८)में श्रीवल्लभाचार्यजीके बड़े पुत्र श्रीगोपीनाथजी श्रीजगदीश दर्शनके लिए गये थे तब उनको कहा था, और गोरके चोपड़ेमें इस बातके लिखे हुए निर्देश पर श्रीगोपीनाथजीके हस्ताक्षर भी प्राप्त हए हैं। श्रीवल्लभ इस लघुयात्रामें आगे बढ़ते हुए दूसरे वर्ष में उज्जैन आ पहंचे और अपने तीर्थगोर नरोत्तमके चोपड़ेमें सं० १५४६ चैत्र सुदि १के दिन कन्नड़ लिपिमें हस्ताक्षर दिये। वे आज भी सुलभ है-'श्रीविष्णुस्वामिमर्यादानुगामिना वल्लभेन अवन्तिकायां नरोत्तमशर्मा पौरोहित्येन सम्माननीयः सं० १५४६ चैत्र शुद्ध प्रतिपदि ।' इस समय श्रीवल्लभका वय १७ का था। इस लघुयात्राको समाप्त कर अल्प समयमें विजयनगर वापस आ पहंचे और अध्ययन कार्यको फिरसे शुरू कर दिया। २८० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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