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________________ यतिजीकी पाठशाला थी और कहा जाता है कि लक्ष्मण भट्टजीने वहां ज्योतिष शास्त्रका अभ्यास किया था। काशीमें स्वेष्ट अनुकूल वातावरणमें लक्ष्मणभट्टजी यागादिकके उत्तर कार्योंसे निवृत्त होकर आनन्दसे स्वाध्याय और श्रीगोपालकृष्णको विष्णुस्वामी संप्रदायकी प्रणालीसे भक्ति करने में अपने दिन व्यतीत कर रहे थे, इतने में अचानक एक आपत्ति आई। काशी जौनपुरके मुस्लिम राज्यकी सत्तामें था। दिल्लीके बहलोल लोदी (ई० सं० १४५०-८९) और जौनपुरके सुल्तान हुसेनके बीच संघर्ष चालू था। बेशक, आरम्भमें उसका असर पूर्व में काशी तक नहीं पहुंचा था, और काशीवासी लोग निश्चिन्त रहते थे। आहिस्ता आहिस्ता जौनपुरका प्रदेश दबाते-दबाते दिल्हीके सैन्य पूर्व में आगे बढ़ते जाते थे। ऐसा एक हल्ला काशीके प्रान्तप्रदेशमें होनेका भय खड़ा हुआ और काशीके लोगोंमें नास भाग शुरू हो गई। एल्लमागारूजी सगर्भा थी और काशी छोड़ना अनिवार्य बन गया था। लक्ष्मण भट्ट अपने दूसरे रिश्तेदारोंके साथ, निकल पड़े, प्रवास लम्बा था। कितने दिनोंके बाद वे अपने वतनके सीमाप्रान्त आ पहुंचे। जब महानदीके तीर प्रान्तके चम्पारण्य नामक अरण्यमें आये तब ई० सं० १४७२ (वि० सं० १५२९)के व्रज वैशाख वदि ११ एवं शनिवारके दिन प्रवासके असामान्य कष्टके कारण श्री एल्लमागारूजीको सातवें मासमें कुछ अपक्वसे बालकका एक शमीवृक्षके नीचे प्रादुर्भाव हो गया, साथके प्रायः सभी लोग कांकरपांढू पहुँच गये थे। लक्ष्मणभट्टजी और एल्लम्मागारूजी अपनी दो बच्चियों के साथ थे। रात्रिका आरम्भ हो गया था और ६ घड़ी और ४४ पल पर यह प्रसूतिका प्रसंग बन गया। सातवें मासमें जात बालकको मृतवत् समझकर वस्त्रमें लपेट लिया और शमीवृक्षके कोटरमें रखकर, अन्य प्राणियोंसे बचानेके लिए वृक्षके चारों ओर अग्निका वर्तुल कर दिया। रात्रि वहाँ ही पूर्ण की; माताजीके उस समय कुछ स्वस्थता प्राप्त हुई तब बोल उठीं। मेरा बच्चा कहाँ है ? बच्चा शमीवृक्षके कोटरमें बताया गया । रात्रिभरके जलते अग्निके कारण बच्चेके देहमें शक्ति आ गई थी। वह रोने लगा, माताने अग्निको हटाकर बच्चेको गोदमें तो लिया। मान लिया गया कि भौतिक अग्निने ही अपने आधिदैविक स्वरूपको धारण करके जगत् के समक्ष दर्शन दिया। उस समय वहां जो कोई भी हरिजन थे उन सबोंको आनन्द हो गया । स्वस्थताके बाद आहिस्ता-आहिस्ता शेष लोग नज़दीकके चौड़ा गांवमें आ पहुँचे-वहाँका रईस लक्ष्मण भट्टजीका परिचित था; उनको वहां अच्छा आश्रय मिल गया। छट्टी के दिन काशीसे माधवेन्द्र यति और मुकुन्ददास नामक एक विरक्त वैष्णव उस चौड़ामें ही आ पहुँचे, भट्टजीके बहाँ पुत्रका जन्म सुनकर उन दोनोंको बड़ी प्रसन्नता हई । करीब डेढ़ मासका समय चौड़ामें ही निकला, जातकर्मादि सभी संस्कार करनेके बाद भट्टजी अब कांकरपाद अपने घर पर आ गये। काशीसे अशान्तिके समाचार आते रहते थे। ई० सं० १८७६के शीतकालमें दिल्हीके सैन्योंने हुसेनका पराजय पूरा कर लिया और बहलोल लोदी एवं हसेनके बीच तीन सालोंका तह हआ। अब काशीमें शान्ति हुई और वह समाचार कांकरपाढूमें आनेके बाद आये हुए लोगोंने काशी वापस लौटनेका उद्यम किया। इन तीन वर्षों के बीच भट्टजीके वहां एक ओर पुत्रका जन्म हुआ था। भट्टजीका प्रथम पुत्र रामकृष्ण कांकरपाळूमें ही था, दूसरा अग्निरक्षित पत्रका नाम 'वल्लभ' रखा गया था और तीसरेका नाम रामचन्द्र दिया था । पिताजीकी भावना थी कि वल्लभको यथा समय विद्याभ्यासके लिए काशीमें ही व्यवस्था करनी चाहिए। माधवेन्द्र यतिजी की पाठशाला काशीमें ही थी, अतः सुविधा थी ही। लक्ष्मणभट्टजी अपने छोटे कुटुम्बके साथ काशी जा पहुँचे । अब जब श्रीवल्लभको पांचवें वर्षका आरम्भ गया तब (वि० सं० १५३३ ई० सं० १४७६) आषाढ़ सुदि २ और रविवारके रथयात्राके दिन पिताजीने खुदने ही श्रीवल्लभको अक्षरारम्भ करवाया और पांचवें वर्षके अन्त भागमें (वि० सं० १५३४ ई० सं०१४७७) चैत सुदि ९ और रविवारको यज्ञोपवीत २७८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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