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________________ सिद्धसेनने' भी उपर्युक्त कारिकाकी शब्दावलीमें ही 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्' कहकर अपना हेतुलक्षण निरूपित किया है । 'ईरितम्' क्रियापद द्वारा तो उक्त हेतुलक्षणकी उन्होंने पूर्व प्रसिद्धि भी सूचित की है। जैन न्यायको विकसित करने और उसे सर्वाङ्ग पूर्ण समृद्ध बनाने वाले भट्ट अकलङ्कदेवने सूक्ष्म और विस्तृत विचारणा द्वारा उक्त हेतुलक्षणको बहत सम्पुष्ट किया तथा न्यायविनिश्चयमें पात्रस्वामीकी उक्त प्रसिद्ध कारिकाको ग्रन्थकी ३२३ वीं कारिकाके रूप में देकर उसे अपने ग्रन्थका भी अङ्ग बना लिया है। उत्तरकालमें कुमारनन्दि,' वीरसेन,४ विद्यानन्द,५ माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, वादिराज, देवसूरि,० शान्तिसूरि,११ हेमचन्द्र,१२ धर्मभूषण,3 यशोविजय,१४ चारुकीति५ प्रभृति जैन ताकिकोंने उक्त हेतुलक्षणको ही अपने तर्कग्रन्थोंमें अनुसृत करके उसीका समर्थन किया और त्रैरूप्य, पांचरूप्य आदि हेतुलक्षणोंकी मीमांसा की है ।१६ इस प्रकार जैन चिन्तकोंने साध्याविनाभावी-अन्यथानुपपन्न हेतुके प्रयोगको ही अनुमेयका साधक माना है। त्रिरूप, पंचरूप आदि नहीं। उसके स्वीकारमें अव्यापकत्व, अतिव्यापकत्व आदि दोष आपन्न होते हैं। ध्यातव्य है कि यह हेतु प्रयोग दो तरहसे किया जाता है१७-(१) तथोपपत्ति रूपसे और (२) अन्य १. न्याया व० का० २१ । २. न्याय वि० का० २।१५४, १५५ । ३. प्रमाण ५० पृ० ७२ में उद्धृत । ४. षट्ख० धवला ५।५।५, पृ० २८० तथा ५५।४३, पृ० २४५ । ५. प्रमाणप० ७२० त० श्लो० १।१३।१९३, पृ० २०५ । ६. परी० मु० ३।१५। ७. प्रमेयक० मा० ३११५, पृ० ३५४ । ८. प्रमेयर० मा० ३।११। ९. न्या० वि० वि० २११, १० २ । प्र० नि०, पृ०४२ । १०. प्रमा० न० त० ३।११ पृ० ५१७ । ११. न्यायाव० वा. ३।४३, पृ० १०२। १२. प्रमाणमी० २।१।१२ । १३. न्याय० दी०, पृ० ७६ । १४. जैन तर्क भा०, पृ० १२ ।। १५. प्रमेय रत्नालं० ३.१५, पृ० १०३ । १६. विशेषके लिए देखिए, लेखकका 'जैन तर्क शास्त्र में अनुमान विचार : ऐतिहासिक एवं समीक्षात्मक अध्ययन' शोध प्रबन्ध, प्रकाशक, वीर सेवामन्दिर-ट्रस्ट, डुमरॉव कालौनी, अस्सी, वाराणसी-५ (उ० प्र०); १९६९ । १७. व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा। अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेऽभवत्वान्यथा नुपपत्तेर्वा । -परीक्षामुख ३९५ । हेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारः इति । -प्रमाणनयतत्त्वा० ३।२९ । न्यायाव० का० १७ । प्र० मी० २।१।४ । २६२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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