SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वली विमासी पासइ हुंतउ, गुर्ज लीउ अहिनाण विण संकेत कहीइ केतलइ नही मानइ सुरताण (खण्ड २, कड़ी १३७) अवधि एतलइ पहुतउ काल, ग्यउ आकाशि धूप विकराल सातल भणइ गुरज मोकलउ, पातिसाह कहसि हुं भलउ, (खण्ड २, कड़ी १५९) । गुरज, लोहे के हत्थेवाला और गदाके समान छोटा, सिरेपर लोहा लगा हुआ और धारिये डाला हुआ एक शस्त्र होता है। अधिकतर फकीरोंके पास छोटी गुरज होती है। जिसे वे अपने हाथमें रखते हैं । संनाह-बख्तरके विभिन्न प्रकार-जरहजीण, जीवणसाल, जीवरखी, अंगरखी, करांगी, वज्रांगी, लोहबद्धलुडि-कान्हड़देप्रबन्ध'की भटाउलि (पृ० ४७)में वर्णित है। इनके अतिरिक्त अंगा और रंगाउलि इन भेदोंका भी उल्लेख है (खण्ड १ कड़ी १८९, १०८१ को टिप्पणीमें अंकित प्रक्षेप पंक्ति ७) इन सभी भेदोंका प्रत्यक्ष ज्ञान करने हेतु जिज्ञासुओं और विद्यार्थियोंको किसी सिलहखानेको देखना चाहिए। तोप और दारूगोलोंका कुछ उल्लेख भी ‘कान्हड़देप्रबन्ध' में है। प्रो० पी० के० गोडेके मतानुसार (ए वोल्युम आफ इण्डियन एण्ड इरानियन स्टडीज पृ० १२१-२२), भारतमें तोपके व्यवहारका सर्वप्रथम उल्लेख मूलत: एक चीनीका है और वह ई० पू० १४०६ जितना प्राचीन है। दारू गोला और तोपबन्दूकके सम्बन्धमें भारतीय मुस्लिम उल्लेखोंमें अनुक्रमसे ई० सं० १४७२ और १४८२ है। नालिका किंबा तोपका और दारूगोलाका प्राचीनसे प्राचीन उल्लेख उपलब्ध संस्कृत साहित्य -'आकाश भैरवकल्प' में काईसाकी सोलहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धका है। इसकी अपेक्षा 'कान्हड़देप्रबन्ध'का उल्लेख लगभग जितना पुराना है। अहमदाबादमें देवशा पांडेके ग्रन्थ भण्डारको 'कल्पसूत्र'की एक सचित्र हस्तलिखित पत्रमें बन्दूकधारी सैनिकका चित्र है। (कार्ल खंडालावाला और मोतीचन्द्र, न्यू डोक्युमेण्ट्स आफ इण्डियन पेइण्टिग, बम्बई १९६९ चित्र सं० ६२) इस हस्तलिखित पत्रके अन्तिम पत्र गुम हो जानेके कारण इसका लेखन-वर्ष ज्ञात न हो सके ऐसा नहीं किन्तु लिपि एवं चित्रकी शैली परसे यह ई० सं० १४७४ के आसपासका होनेका अनुमान कतिपय जानकारोंने लगाया है। इस ‘कान्हड़ देप्रबन्ध'को रचना ई० सं० १४५६ की है इस दृष्टिसे यह वास्तविक प्रतीत होता है। दूसरा, भारतीय चित्रकलाकी खोज करनेवाले कतिपय पाश्चात्योंने 'कल्पसूत्र'की प्रस्तुत हस्तलिखित प्रतिमें के बन्दूकके आलखको ठेठ सोलहवीं शताब्दीमें रखनेका प्रयास किया है यह भो ‘कान्हड़देप्रबन्ध' मेंके तोप दारूगोले आदिका व्यौरेवार वर्णनको अनुलक्षित करनेपर उचित प्रतीत नहीं होता। अब 'कान्हड़देप्रबन्ध में प्रस्तुत अवतरण की ओर दृष्टिपात करना चाहिए। जालौरके पास समियाणाका किला, जिसको रक्षा कान्हड़देवका भतीजा सांतलसिंह कर रहा था उसके घेरे जानेका वर्णन देखें तरक चड़ी गढ साहमा आवइ. उठवणी असवार साम्हा सींगिणि तीर विछूटइ, निरता वहइ नलीयार, उपरि धिकू ढील ज धाइ, झाडवीड सहू भांजइ हाड गूड मुख करइ काचरां पडतउ पाहण वाजइ, आगिवर्ण उडता आवइ, नालइ नांख्या गोला भूका करइ भीति भांजीनइ, तणखा काढइ डोला, यंत्र मगरबी गोला नांखइ, दू सांधी सूत्रहार जिहां पडइ तिहां तरुवर भांजइ, पडतउ करइ संहार २२० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy