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________________ 'रास' कहा है। इसपरसे देखा जा सकता है कि प्राचीन गुजरातीमें रास और प्रबन्धके मध्य भेद रेखा पूर्णरूपसे स्पष्ट नहीं है अपितु, इन दोनोंको एक पृथक् साहित्यिक रूपमें मानना यह भी बहुत उचित नहीं है। श्री डाह्याभाई दैरासरी संपादित 'कान्हड़देप्रबन्ध' की द्वितीयावृत्तिके पुरोवचन (पृ० ७-१७) में श्री नरसिंहराव दिवेटियाने इस रचनामें व्यक्त की गई धार्मिक सामाजिक स्थितिके सम्बन्धमें, जन मण्डलकी स्थिति और योद्धाओं आदिको स्थिति के सम्बन्धमें, नगर रचना, गृह रचना, शास्त्रोंके सम्बन्ध में एवं राजपूतोंके शौर्यपरायण संप्रदायके सम्बन्धमें संक्षिप्त किन्तु साधार विवेचन किया है। इसकी पुनरावृत्ति किये बिना इस ग्रन्थ में से उपस्थित होते हुए कुछ महत्त्वके और व्यापक प्रसंगोंकी चर्चा मैं इस भाषणमें करूंगा। साहित्य और भाषाकी दृष्टिसे इस प्रशिष्ट काव्यका अध्ययन करते-करते मेरा राज्य-प्रबन्धकी बारीकीमें कैसे उतरना हुआ, इस सम्बन्धमें कुछ कहूँ। सन् १९४०-४१ में बी० ए० की परीक्षाके लिए 'कान्हड़दे प्रबन्ध' मैं पढ़ रहा था। श्री डाह्याभाई देरासरी द्वारा सम्पादित दो प्रतियाँ और सन् १९२४ में इनके द्वारा प्रकाशित गुजराती पद्यानुवाद-यह सामग्री हमारे अवलोकनके लिए उपलब्ध थी। मल प्रतिके सम्पादनमें खण्ड १ कड़ी १३ का पूर्वार्द्ध इस प्रकारसे था तिणि अवसरि गूजरधरराई, सारंगदे नाभि बोलाई । इसके उत्तरार्द्धके रूपमें श्री देरासरीने निम्न कल्पित पाठ रखा है भत्रीजउ तेहनउ बलवन्त, करणदेव युवराज भणंत । यह कल्पित पाठ दूसरी आवृत्ति में ही जोड़ा गया है । प्रथवावृत्तिमें यह नहीं है। किसी अन्य हस्तलिखित प्रतिमें भी इससे मिलता-जुलता कुछ नहीं है। श्री देरासरीके सम्पादनके पश्चात् कई वर्षों के बाद प्रकाशित हुए श्री कान्तिलाल व्यासका वाचन भी यही बताता है। हस्तलिखित प्रतियों में तो १३वीं कड़ीका उत्तराद्ध इस प्रकारसे है तिणि अवगुणिउ माधव बंभ, तही लगइ विग्रह आरम्भ । अर्थात् उसने (तात्पर्य यह है कि सारंगदेव वाघेलाने) मन्त्री माधव ब्राह्मणकी अवगणना की। इस कारणसे विग्रहका प्रारम्भ हुआ। तब प्रश्न यह प्रस्तुत होगा कि श्री देरासरीने उपर्युक्त कल्पित पंक्ति क्यों जोड़ी? कर्णदेव वाघेलाके दुराचारसे दुःखी माधव महतो २३वीं कड़ीमें सुल्तान अलाउद्दीनके सम्मुख कर्ण के सम्बन्धमें फरियाद करते हुए कहता है कि-- खित्री तणउ धर्म लोपिउ, राउ कर्णदे गहिउल थयउ । अर्थात् क्षत्रिय-धर्मका लोप कर दिया है और राजा कर्णदेव पागल हो गया है । इस प्रकार से केवल दस ही कड़ी के अन्तरपर दो विभिन्न व्यक्तियोंका-सारंगदेव ओर कर्णदेवगुजरातके राजाके रूपमें कान्हड़देप्रबन्ध निर्देश है। इससे राजा और युवराज दोनों ही साथ-साथ राज्य व्यवस्थाका संचालन करते हों इस प्रकारके दो अमली राज्यकी श्री देरासरी द्वारा अपने सम्पादनकी टिप्यणी (द्वितीयावृत्ति पृ० १२१)में कल्पना कर तथा सारंगदेव और कर्णदेवका राज्यकर्ताके रूपमें एक साथ उल्लेख मूल काव्यमें हुआ है। इसमेंका विद्यमान विरोधाभास दूर करने के लिये उपरोक्त प्रथम कल्पित पाठ जोड़ा गया है। कल्पित पाठको जोड़नेकी पद्धति शास्त्रीय सम्पादनमें उचित नहीं है। किन्तु दो अमली राज्यके सम्बन्धमें श्री देरासरीने जो अनुमान किया है वह वास्तविक है । २१४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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