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________________ अनन्तर सज्जन-दुर्जन वर्णन है। दुर्जन-वर्णनमें कविकी उक्ति है कि जिस प्रकार पित्तका रोगी सदा सभी वस्तुओंमें कड़वेपनका स्वाद लेता है इसी प्रकार दुर्जन भी मधुर काव्यरचनाको रसहीन समझते हैं । दोष देखना ही उनका स्वभाव है । दूसरेके दोष देखने में वे पिशुनस्वभावके होते हैं । कविने पूर्ववर्ती अनेक कवियों का उल्लेख किया है। उन कवियों के नाम हैं-अकलंक स्वामी, पूज्यपाद, इन्द्रनन्दी, श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, चतुर्मुख, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, मुनि यशःकीर्ति, पंडित रइधू, गुणभद्रसूरि, और सहणपाल । अकलंक सामि सिरि पायपूय, इंदाइ महाकइ अट्ट हृय । सिरि णेमिचंद सिद्धतियाई, सिद्ध तसार मुणि णविवि ताई। चउमुहु सुयंभु सिरि पुप्फयंतु, सरसइ णिवासु गुणगण महंतु । जकित्ति मुणीसरु जसणिहाणु, पंडिय रइधू कइ गुण अमाणु । गुणभद्दसूरि गुणभद्द ठाणु, सिरि सहणपालु बहु बुद्धि जाणु । पर्वकवियोंके कीर्तनके उपरान्त कवि अपनी अज्ञानताको स्पष्ट प्रकट करता हआ कहता है कि मैंने : नहीं देखा, मैं कर्ता, कर्म और क्रिया नहीं जानता । मुझे जाति (छंद), धातु और सन्धि तथा लिंग एवं अलंकारका ज्ञान भी नहीं है। कवि के शब्दोंमें णउ दिट्ठा णउ सेविय सुसेय, भई सद्दसत्थ जाणिय ण भेय । णो कत्ता कंमु ण किरिय जुत्ति, णउ जाइ धाउ णवि संधि उत्ति । लिंगालंकारु ण पय समत्ति, णो वुज्झिय मइ इक्कवि विहत्ति । जो अमरकोसु सो मुत्तिठाणु, णाणिउ मइ अण्णु ण णाम माणु । णिग्घंटु वियाणिउ वणि गइंदु, सुछंदि ण ढोइउ मणु मइंदु । पिंगल सुवण्णु तं वइ रहिउ, णाणिउ मइ अण्णु ण कोवि गहिउ । इसलिये ज्ञानी जन इस काव्य-व्यापारको देखकर कोप न करें ? यहाँपर सहज ही प्रश्न उठता है कि जब तुम अज्ञानी हो और इस काव्य-व्यापारको जानते-समझते नहीं हो तब काव्य-रचना क्यों कर रहे हो ? रचनाकारका उत्तर है जइ दिणयरु णहि उज्जोउ करइ, ता किं खुज्जोअउ णउ फुरइ । जइ कोइल रसइ सुमहुरवाणि, किं टिट्टिर हइ तुण्हंतु ठाणि । जइ वियसइ सुरहिय चंपराउ, किं णउ फूलइ किंसुय बराउ । जइ पडहु विवज्जइ गहिरणाउ, ता इयरु म वज्जउ तुच्छ भाउ । जइ सरवरि गमइ सहंस लील, कि णउ धरि पंगणि बह सवील । मण मित्त मुयहि तुहु कायरत्त, करि जिणहु भत्ति हय दुव्वरित्तु । बहु विणउ पयासिवि सज्जणाह, किं ण्हाण णु करि खलयणगणाह ।। अर्थात् यदि दिनकर (सूर्य) प्रकाश न करे तो क्या खद्योत (जुगनू) स्फुरण न करे ? यदि कोयल सुमधुर वाणी में आलाप भरती है तो क्या टिटहरी मौन रहे ? यदि चम्पक पुष्प अपनी सुरभि चारों ओर प्रसारित करता है तो क्या बेचारा टेसका फल नहीं फले ? यदि नगाड़े गम्भीर नाद करते हैं तो क्या अन्य वाद्य वादित न हों? यदि सरोवरमें हंस लीला करते हैं तो क्या घरके आँगनमें अनेक सवील (अबाबील ?) पक्षी क्रीडाएँ न करें ? इत्यादि । इतिहास और पुरातत्त्व : १६१ २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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