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________________ तकंसंग्रह फक्किका तर्कसंग्रह फक्किकाकी रचना मुनि क्षमाकल्याणने संवत् १८२८में की थी। यह फक्किका श्री अन्नभद्र के तर्कसंग्रहकी स्वोपज्ञदीपिकाटीकाकी एक सरल टीका है। तर्कसंग्रहकी दीपिकाके प्रतिपादनपर अपनी कोई स्वतन्त्र समालोचना न लिखकर दीपिकाके भावार्थको इस फक्किकामें जिस रीतिसे स्पष्ट किया गया है वह फक्किकाकारको समझानेकी शैलीकी विशेषता है। मुनि क्षमाकल्याण दीपिकाकारके लक्षणों और स्वरचित लक्षणोंका पदकृत्य काव्यको खण्डान्वय पद्धतिका अनुसरण करते हुए कहते हैं। यथा-किं नाम उद्देशत्वम् ? "नाममात्रेण पदार्थसंकीर्तनम् उद्देशत्वं" ताल्वोष्ठव्यापारणोच्चारणं संकीर्तनम् । इहवंशे पाठ्यमानदलद्वयविभागजन्यचटचटाशब्दे अतिव्याप्तिवारणाय नामपदम्, बंध्यापुत्रे अतिव्याप्तिवारणाय पदार्थपदम्, लक्षणवाक्ये अतिव्याप्तिवारणाय मात्रपदम् । साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वाद् आर्द्वन्धनसंयोग उपाधिः । उपाधिके इस लक्षणपर दीपिकाकारने "उपाधिश्चतुर्विधः-केवल साध्यव्यापकः, पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकः" आदिके द्वारा उपाधिका वर्गीकरण अवश्य किया है परन्तु लक्षणके प्रत्येक पदको समझानेका इसमें कोई प्रयत्न नहीं किया गया । मुनिप्रवर क्षमाकल्याणकी फक्किका इसके लिए विशेष सहायक होती है। यथा-साध्यति-साध्यो धमः, तत्समानाधिकरणो योऽत्यत्रभाव आर्दैन्धनसंयोगाभावस्तु नायाति, तहि घटपटाद्यत्यन्ताभावः तस्य प्रतियोगित्वं वर्तते घटादौ, अप्रतियोगित्वम् वर्तते आर्द्वन्धनसंयोगे । __इस उदाहरणसे यह सष्ट है कि मुनि क्षमाकल्याण पदपदार्थके रहस्यको पूर्णरूपेण समझा देनेकी अपूर्व क्षमता रखते हैं। गौतमीय काव्यम् टीका 'गोतमीय काव्यम्" क्षमाकल्याणजीके गुरु पाठक श्रीकूपचन्द्र गणि द्वारा विरचित एक महाकाव्य है । इसपर गौतमीयप्रकाश नामकी यह विशद व्याख्या श्री क्षमाकल्याणने १८५२में लिखी थी। आपके द्वारा लिखित समस्त टीकाओं, वृत्तियों एवं व्याख्याओंमें यह टीका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इसमें मल लेखकके गम्भीर एवं गूढ़ विचारोंको अत्यन्त सरल एवं मनोरम रूपमें स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया गया है। इसमें जैनसिद्धान्तोंकी स्थापनाके लिए बौद्ध, वेदान्त और न्यायादि५ दर्शनोंका युक्तियुक्त १. तद्विनेयेन क्षमादिकल्याणेन मनीषिणा । तर्कसंग्रहसूत्रस्य संवृतेः फक्किका इमाः। यथाश्रुता गुरुमुखात् तथा सङ्कलिताः स्वयम् । वसुनेत्रे सिद्धिचन्द्रप्रमिते हायने मुदा ।।-तर्कसंग्रह फक्किका २. (अ) बाहुज्ञानवसुक्षमा (१८५२) प्रमितिजे वर्षे नभस्युज्ज्वले । एकादश्यां विलसत्तिथौ कुमुदिनीनाथान्वितायामिह । (आ) तच्छिष्यो वरधर्मवासितमतिः प्राज्ञः क्षमापूर्वक: कल्याणः कृतवानिमां कृति जन: स्वान्तप्रमोदाप्तये । बुद्धेर्मन्दतया प्रमादवशतो वा किंचिदुक्तं मयाऽत्राशुद्धं परिशोधयन्तु सुधियो मिथ्याऽस्तु मे दुष्कृतम् ॥ तथा तेषां शून्यवादिना बौद्धकदेशिनां शून्यता एव परं प्रधानं तत्त्वं विद्यते, तेषां वाचो गिरोऽर्थशन्यत्वादभिधेयहीनत्वात्कदापि कस्मिन्नपि काले न प्रतीताः स्युर्न प्रतीतियुक्ता भवन्ति । अयमर्थः ये खलु सर्वशून्यामेवास्तीति वदन्ति तेषां वाचोऽपि सर्ववस्त्वन्तर्गतत्वात् शून्या एव, ततश्चार्थशून्ये तद्वचने को विद्वान्प्रतीतिं कुर्वीतेति ॥ सर्ग ७१७३ । वेदान्तिनां मतं वेदान्तिमतं तदाश्रित्य यद्यपि ब्राह्मण आत्मन ऐक्यमेकत्वं स्थितम्, तथापि हे गौतम लिङ्गस्य चिह्नस्य भेदेन आत्मनो जीवनस्य भेदं नानात्वमवधारय जानीहि । वेदान्ति-मतं तावदिदम् “एकएव हि इतिहास और पुरातत्त्व : १४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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