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________________ जिनलाभसूरि श्री जिनभक्त सूर स्वर्गवास आपका स्वर्गवास बीकानेर में रहते हुए संवत् १८७३ में हुआ था । गोलोकवासी होनेपर उर्दू के मरसियाकी तरह संस्कृत में एक शोकगीतकी अत्यन्त मार्मिक वेदनासे पूर्ण एवं गुरुगुणसे परिपूर्ण है । २ साहित्यसाधना प्रीतिसागर अमृतधाम 1 उपा० क्षमाकल्याण संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानीपर आपका स्पृहणीय अधिकार था और आपने अपने जीवनकाल में सब मिलाकर छोटे मोटे १५० ग्रन्थोंकी रचना की थी जिनमें २९ रचनाएँ केवल संस्कृतकी हैं । आपके इस साहित्यकी स्वहस्तलिखित अनेक प्रतियाँ बीकानेरके प्रसिद्ध साहित्यसेवी जैन भास्कर श्री अगरचन्दजी नाहटाके अभयजैन ग्रन्थालय में सुरक्षित हैं । इनकी इन समस्त कृतियोंमें सबसे अधिक संख्या टीका ग्रन्थोंकी है । टीका विभिन्न प्रकारोंमें आपने टीका, वृत्ति, चूर्णि और फक्किका आदि टीकाके स्वरूपोंपर रचना की है । इन टीकात्मक रचनाओं में जो-जो विशेष रूपसे प्रसिद्ध हैं वे निम्नलिखित है और इनके साथ ही उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं का उल्लेख किया गया है । श्रीपालचरित्र टीका Jain Education International आपके किसी शिष्यने आपके रचना की थी । यह शोकगीत श्रीपालचरित्र मूलरूपमें प्राकृत भाषा में लिखा गया है। इसके रचयिता श्री रत्नशेखर सूरि हैं । इस ग्रन्थपर मुनिप्रवर क्षमाकल्याणने अवचूर्णि नामक टीका लिखी है । यद्यपि यह ग्रन्थ भावनगरसे पत्राकार रूप में मुद्रित है किन्तु उसमें प्रशस्ति छोड़ दी गयी है । केवल मुद्रित प्रतिके "उपोद्घात" में यह लिख दिया गया है कि "परमत्रावचूर्णिय मुद्रिता सा श्रीक्षमाकल्याणकैर्विहितेति प्रघोषः " किन्तु श्री अगरचन्द नाहटाके अभयजैन ग्रन्थालय में स्वयं टीकाकार द्वारा लिखित इसकी प्रति प्राप्त है । इस प्रतिके अन्त में प्रशस्ति दी गयी है । वर्षे नन्दगुहास्यसिद्धिवसुधा संख्ये शुभे चाश्विने मासे निर्मलचन्द्रके सुविजयाख्यायां दशम्यां तिथौ । पूज्यश्रीजिनहर्षसूरिगणभृत् - सद्धर्मराज्ये मुदा श्रीश्रीपालनरेन्द्रचारुचरिते व्याख्या समन्तात् कृता ॥ १. श्रीजिनभक्तिसूरीन्द्र - (सु) शिष्या बुद्धिवद्धियः । प्रीतिसागरनामानस्तच्छिष्या वाचकोत्तमाः । श्रीमन्तोऽमृतधर्माख्यास्तेषां शिष्येण धीमता । क्षमाकल्याणमुनिना शुद्धिसम्पत्तिसिद्धये ॥ - खरतरगच्छ - पट्टावली, पट्टावली संग्रह - पु० ३९ । २. सर्वशास्त्रार्थ - वक्तॄणां गुरूणां गुरुतेजसाम् । क्षमाकल्याणसाधूनां विरहो मे समागतः । तेनाहं दुःखितोऽजस्रं विचरामि महीतले । संस्मृत्य तद्गिरो गुर्वीर्धेर्यमादाय संस्थितः । बीकानेरपुरे रम्ये चतुर्वर्ण्य - विभूषिते । क्षमाकल्याणविद्वांसो ज्ञानदीप्रास्तपस्विनः । रिभू वर्षे (१८७३) पौषमासादिमे दले । चतुर्दशी दिन- प्रान्ते सुरलोकगतिं गताः ॥ - ऐ० जैन० काव्य संग्रह - पृ० ३० । इतिहास और पुरातत्त्व : १४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012043
Book TitleAgarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages384
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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