SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री धनविजयजी महाराज मन ही मन व्यथित हो रहे थे। संघ इकट्ठा हुआ । गुरुदेव श्री के उत्तराधिकारी के रूप में सर्वानुमति से उपाध्याय मुनिराजजी श्री धनविजयजी महाराज को चुना गया। वि. सं. १९६५ में जेठ सुदी ११ के दिन जावरा (म. प्र.) में चतुर्विध संघ की साक्षी से उपाध्यायजी को आचार्य पद प्रदान किया गया । जन समूह में आचार्यदेव श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का जयनाद गूंजने लगा। उनकी जय जयकार से गगन मंडल भी गुंजित हो गया। बाल से लाल, लाल से धन और धन से धनचन्द्र सूरीश्वरजी के उच्च पद पर आप आसीन हुए। गच्छ समुदाय को सुन्दर मार्ग दर्शन करते करते आप स्वश्रेय की आराधना में लीन रहने लगे। आचार्य श्री द्वारा रचित निम्नलिखित पूजाओं में उनकी विद्वत्ता के दर्शन होते हैं यथा-समकित अष्टप्रकारी पूजा, समकित सदसठ भेदी पूजा, अष्टप्रवचन माता पूजा, बारह भावना पूजा, समवसरण पूजा, विशंति स्थानक पूजा और जिनेन्द्र पंच कल्याणक पूजा। गच्छ की धुरा को वहन करते-करते प्रतिष्ठा अंजन शलाका, उपधान, उद्यापन आदि विविध प्रकार की प्रवृत्तियों से आप जीवन को धन्य बना रहे थे। ही किया। इसी बीच मुनिश्री धनविजयजी को मगसर सुदी ५ को उपाध्याय पद प्रदान किया गया। सकलागम रहस्य के ज्ञाता उपाध्याय श्री धनविजयजी महाराज की प्रतिभा और ज्ञान शक्ति गजब की थी। गुरु शिष्य का युगल बड़ा प्रभावी था। आगम समुद्र का मंथन किया और अनेक प्रमाण पाठ इकट्ठे किये । इस प्रकार उन्होंने गुरुदेव श्री के सिद्धान्तों का दृढ़ता से प्रतिपादन करना शुरू किया। व्रती को अवती की आशा रखनी नहीं चाहिये । ब्रती को अव्रती की स्तुति करनी नहीं चाहिये । यदि व्रती अव्रती की स्तुति करता है तो वह व्रती के व्रत की अवहेलना है। अरे, वीतराग की आज्ञा का भी खण्डन है। गुरुदेव के साथ में बिहार करके और स्वतंत्ररूप से भी विहार करके उपाध्यायजी ने गुरुदेव का संदेश गांव-गांव में घर-घर पहुंचाना शुरू किया। मालवा, नेमाड़, मेवाड़, गोडवाड, मारवाड़, गुजरात, कच्छकाठियावाड़ आदि प्रदेश उनका प्रमुख विहार क्षेत्र बन गया। उन्होंने देव-गुरुधर्म के स्वरूप के साथ-साथ निश्चय और व्यवहार का स्वरूप भी समझाना शुरू किया। उनके पास बड़े-बड़े प्रश्नकार आने लगे। अनेक विद्वानों के पत्र समाधानार्थ आने लगे। प्रत्येक को संतोषप्रद उत्तर देने में उपाध्यायजी अजोड़ निष्णात थे। उन्होंने जो गद्य ग्रन्थ लिखे उनमें प्रमुख--जैन जन मांस भक्षण निषेध, विधवा पुनर्लग्न निषेध, प्रश्नामृत प्रश्नोत्तर तरंग और चतुर्थ स्तुति निर्णय शंकोद्धार । ये सब ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण और सर्वजन ग्राह्य हैं। उनकी काव्य शक्ति भी असाधारण थी। उनके द्वारा रचित सावन सज्झायो में अध्यात्मभाव भरा है, पद-पद पर आत्मभाव और जैनशासन की अलौकिक संकलना अत्यन्त पठनीय और मननीय है। समय-समय का काम किये जा रहा था । संवत् १९६३ का वर्ष था पोष सुदी ७ का दिन था । आप श्री भीनमाल में व्याख्यान दे रहे थे । सभा मण्डप पूरा-पूरा भरा हुवा था । अचानक खबर आई कि पूज्य गुरुदेव का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया है। वज्राघात सम संवेदनीय समाचार से उन्हें असह्य वेदना हुई परन्तु आप भी तो ज्ञानी थे। संयोग और वियोग तो चलते ही आये हैं । आपने निर्णय किया । बस अब तो गुरुदेव के सिद्धान्त को अधिक वेगवान बनाने में यह जीवन समर्पित करना है। छत्र गिर गया । आधार अलग चला गया। क्या ऐसे गुरु फिर कभी मिल सकेंगे? गुरुदेव ? आप में राग का त्याग और त्याग का राग था। मैं निराधार था । आधार मिला जरूर पर फिर निराधार हो गया । उपाध्यायजी श्री गुलाबविजयजी महाराज, मुनिराज श्री हंसविजयजी महाराज, मुनिराज श्री तीर्थविजयजी महाराज जैसे अनेक भाविकों को चारित्ररत्न प्रदान करके आत्मोद्धार के मार्ग की ओर आगे बढ़ाया। संवत् १९७७ का वर्ष । पूज्य आचार्य देव अपने शिष्य मंडल के साथ बागरा (राजस्थान) में चातुर्मास संपन्न कर रहे थे। संघ में आनन्द-मंगल फैल रहा था। भाषाढ़ मास मेघों की गड़गड़ाहट सुनाते-सुनाते चला गया । सावन आया और बरसात की बूंदों से भूमि को पवित्र करता गया । अब आया भाद्रपद मास । आराधना का है यह मास । सभी लोग आराधना में मग्न थे। गांव में गणनायक आचार्यश्री का चातुर्मास हो तो ऐसे लाभ से कौन वंचित रह सकता है ? बागरा में मानो चतुर्थ आरा ही प्रवर्त्त रहा था। पर्युषण पर्व के चार दिन बीत गये। महावीर जन्मवाचन का दिन आया । आचार्य श्री मानो अपनी तैयारी में लग गये। वे स्वर्गीय गुरुदेव का स्मरण करने लगे और परमेष्ठी भगवंतों की शरण ग्रहण करने लगे। उस समय जनसमाज मध्यान्ह की तैयारी में था। पर अचानक यह समाचार मिलते ही थोड़ी ही देर में श्रमणवृन्द, श्रमणीवृन्द और श्रावक-श्राविकाओं का समूह उपाश्रय में उपस्थित हो गया। (शेष पृष्ट ५३ पर) वी. नि. सं. २५०३/ख-२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy