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________________ किसी भी आत्मा को आत्मज्ञान की उपलब्धि होने पर भी आत्मवीर्य के प्रगटीकरण किये बिना आचरणात्मक चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। अतिचार-रहित चारित्र की आराधना किये बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति एवं आत्मा की "स्व-स्वरूप स्थिति" असंभव है। अरिहंत परमात्मा कथित इस यथार्थ तथ्य का स्वर्गस्थ पूज्यपाद ने अपने जीवन में यथार्थरूप से परिपालन किया था। चारित्र के यथार्थ पालन की उनकी आत्मा की परिणति प्रकर्ष थी जिसकी प्रतीति उनके जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रत्यक्ष होती थी। साथ ही परिग्रह विरक्ति का प्रमाण आपकी व्यक्तिगत 'उपाधि' (साधु के वस्त्र और संयम की आराधना के उपकरणों ) से ही प्राप्त होता था । पूज्यपाद ने अपने जीवन में उतनी ही उपाधि रक्खी कि जो आप खुद ही उठा सकते थे । अनेक विनीत शिष्य होते हुवे भी, हर हमेशा आपने ही अपनी 'उपाधि' उठाई । जहां तक, आत्मा कर्म मुक्त नहीं होती वहां तक, सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति, परिणति और परिपालन का उद्देश्य सिर्फ कर्म-निर्जरा करना होता है। जिसका कर्म निर्जरा की प्रवृत्ति का पुरुषार्थ का क्रम जारी है उसकी सिद्धि समाधिमरण से होती है । पूज्यपाद ने 'आत्म समाधि' से आते हुवे मृत्यु का स्वागत किया उतना ही नहीं परन्तु कर्मबद्ध आत्मा के लिये यह 'स्वाभाविक' क्रम मानकर संसार परिभ्रमण की साहजिक प्रक्रिया को शुद्ध समता भाव से सम्मानित करके स्वर्गवासी हुवे। यह 'पंडित मृत्यु' थी 'पंडित मृत्यु' से भव भ्रमण क्षय होता है और संसार स्थिति कम होती है। स्वर्गस्थ पूज्यपाद के जीवन का मूल्याकंन करने की मेरे में क्षमता नहीं है इसके लिये मैं अनधिकारी हूं। स्वर्गीय पूज्यपाद श्री राजेन्द्र स्०मा० ने अपने जीवन को सर्वज्ञ कथित सत्य और शासन को सर्वथा समर्पित किया था। इस सत्योक्ति में कोई संदेह नहीं है । उनका समर्पण शासन के 'सेवक' होने की उनकी निरहंकार वृत्ति का परिपाक था। उनकी आत्म साधना का प्रभाव अपने खुद तक सीमित नहीं था। उस प्रभाव से एक परम्परा का प्रारंभ हुआ था या पापप्रणाशक परम्परा की पुनः प्रतिष्ठा हुई। पाप प्रणाशक परम्परा पर किसी एक विशेष वर्ग या समाज का अधिकार असंभव है। हां यह संभव है कि जो कोई भी व्यक्ति या समाज उसे विशेष रूप से अभिव्यक्ति देना चाहता है या उसकी उपासना में उद्यमशील रहना चाहता है, वह व्यक्ति या समाज, ऐसी परम्परा के प्रवाह की सत्यनिष्ठा और आचार शुद्धि को अपने व्यवहार से विशेष रूप से या स्पष्टरूप से अभिव्यक्त करे। वास्तव में प्रभु श्री राजेन्द्र सू०म० किसी भी एक विशेष समाज या व्यक्ति के समूह के आत्मोत्थान के आधार नहीं हैं । वे तो सत्य को समर्पित होकर विश्ववंद्य और जनगण के आराध्य बन गये। उनकी पवित्र परम्परा लाख के बराबर है । जो कोई भी आत्मा, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आराधक है या उसके प्रति अचल आस्था रखने वाला है । वही उनकी परम्परा का उपासक और पूजक बन सकता है। ___अन्त में, सभी आत्मलक्षी आत्माओं से मेरा यही अनुरोध है कि, स्वर्गस्थ, पूज्यपाद पूज्यश्री राजेन्द्र सू०म० ने अपने जीवन में सम्यक् ज्ञान की आराधना के माध्यम से सर्वज्ञ कथित सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना और उपासना का जो स्पष्ट पथ प्रदर्शन किया है, उस माध्यम से हम 'स्व-पुरुषार्थ' को प्रगट कर 'स्व-स्वरूप' की साधना में अप्रमत्त बनें । (कविबर प्रनोदरुचि और उनका . . . पृष्ठ ३१ का शेष) को आशीर्वादात्मक उद्बोधन दिया है । उन्हें सम्बोधित करते हुए 'संवत् उगणिस छत्तिस साल । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशि माल ।। रुचिजी कहते हैं : “बचपन में ही तुमने मोह को नाश कर उस पर दीपोच्छव सह घर-घर करे । तिम मुनिगण तम तापिक हरे ।। विजय प्राप्त कर ली और मोहन विजय बने । श्रीमद् श्रीहजूर की अल्पमति बध हाम सुठाण । गुरु गण भक्ति लहि दिल आण ।। हाजरी में अहर्निश शास्त्राभ्यास किये जाओ। सबके प्रीतिपात्र बनो। बावन मंगल करि भई वृद्धि । उत्तम जन कर लेह समृद्धि ।। जो विषय समझ में न आये, उसे अवश्य पूछो...।" मुनि-परिवार के प्रति धर्म-स्नेह की परोपकारी कामना कविवर में मूर्तिमन्त हुई पत्रकमल जलबिन्दु ठेराय । अमल अतोपम अमित देखाय ।। थी, पदगरुता अथवा ज्ञान-गरिमा का अहंकार उन्हें किंचित भी न परिमल दह दिशि पमरे लोक । मंत पुरुष इम होवे थोक ।। था। इस प्रसंग में उन्होंने लिखा है-- "विनति" जो सुणे चित्त लगाय । निकट भवी समदृष्टि थाय ।। 'लघु शिष्य सोहे विजे मोह नाथी । तज्यो मोह बालापनाथी ।। रुचि प्रमोद गाव भण। सुणतां श्रवणे पातिक हण ॥ विरोची विशुद्धा वान लागे सहुने । भणो शास्त्र वांचा खुशी हो बहुने।। जब श्रीमद् १८८१ ई. में मालवा आये तब कविवर ने उनके मुनिभ्यास राखो दिवाराता माही। कलापूर्ण साधु, सिरे स्वच्छ ठाही ।। दर्शन किये और उसी वर्ष विक्रम संवत् ११३८, आषाढ़ शुक्ल १४ हजूरे हाजरे रहो पूछताजे । लहो अच्छ अच्छे गहो गम्य गाजे । को उनका देहावसान हो गया । ___आज से लगभग एक सौ वर्ष पूर्व कविवर श्री प्रमादरुचि ने अपने इस "विनतिपत्र" का उपसंहार इन पंक्तियों से किया था-- राजेन्द्र-ज्योति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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