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आत्मर्षि पू. पा. श्रीमद्राजेन्द्रसूरि
श्री रमेश आर. जवेरी
परमतारक श्री वीतराग परमात्मा के शासन की और आज्ञा की आराधना या उपासना तभी होती है कि जब कोई भी आत्मा में अन्तनिहित स्वगुणों को लगे हवे कर्म पटल की परिशुद्धि की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है।
इस शाश्वत सत्य को अनेकांतवाद के माध्यम से या अन्य रूप से अभिव्यक्त करने पर, यह ठोस तथ्य "साहजिक स्वरूप" में स्वयं प्रकाशित हो उठता है । जब कभी भी, किसी भी आत्मा में 'स्वस्वरूप प्राप्त करने की इच्छा या उद्यम, पुरुषार्थ के रूप में परिवर्तित होता है तब, वह आत्मा स्व-शुद्धिकरण के माध्यम से ज्ञात या अज्ञात रूप से सर्वज्ञ कथित 'मूल साधना मार्ग' की साधक बन जाती है । ऐसी साधक वृत्ति जागृत होते ही, ऐसी आत्मा स्वयं सत्य से अवगत हो जाती है । सत्य से अवगत होने की यह प्रक्रिया 'अवश्यंभावी' होती है । ऐसी साधक अवस्थावाली आत्मा सांप्रदायिक आम्नायों की आश्रित या परावलम्बी नहीं रहती। सांप्रदायिक का व्यामोह ऐसी आत्मा को अपने साधना मार्ग से विचलित करने में असमर्थ है । साधक साम्प्रदायिक आचार-विचार से सीमित संबंध रखता है। . ऐसा साधक स्वाश्रयी किन्तु स्वार्थ से विमुख, पारगामी दृष्टि का स्वामी और पूर्वग्रहों के प्रवाहों से मुक्त हो कर 'मुक्तात्मा' बनने का परिश्रम करता हआ श्रेय-साधक 'श्रमिक' बन जाता है । ऐसा श्रेयसाधक श्रमिक' अपनी साधक अवस्था को बनाये रखने के बजाय प्रतिदिन उसको सुदृढ़ बनाता है ।।
सच्चा श्रमिक बही है कि जो, अपने प्रामाणिक परिश्रम में ओतप्रोत है। इसी तरह सच्चा साधक वही है कि जो, अपनी सत्यनिष्ठा को जताता हुआ सम्हालता हुवा, समतायुक्त माध्यमों से 'स्व-स्वरुप' के प्रगटीकरण के लिए प्रयत्नशील है। किसी भी
आत्मा की ऐसी प्रयत्नशीलता याने 'अप्रमत्त अवस्था' ही उसे परिशुद्धि की प्रक्रिया की पूर्णाहति द्वारा परमपद पर पदासीन करा सकती है या कराती है।
ऐसे साधक में रही हुई इस आदर्श प्रयत्नशीलता का उद्गम सभ्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से प्रगट आत्मानुभव से ही होता है। सच्चे श्रमिक को श्रमनिष्ठा ही सम्यक् चारित्र की ‘सुनिहित' आराधना के लिए आवश्यक सामर्थ्य को प्रदान कर सकती है।
परिशुद्धि की प्रक्रिया से पार होती ऐसी आत्मा स्वार्थ विरक्त पारगामी दृष्टि और पूर्वाग्रह मुक्त श्रेयलक्षी श्रम के परिश्रम से 'स्व-स्वरूप' की साधना द्वारा 'सहजरूप' से कहां तो प्रभावक परंपरा छोड़ जाती है या एक उज्ज्वल प्रकाश की लौ प्रकट कर देती है । इस लौ का प्रकाश अनेकानेक आत्माओं का पथ प्रदर्शक और पाप प्रणाशक सिद्ध होता है।
ऐसी एक आषंदृण्टा आत्मा पू० श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा प्रकट की हुई पथ प्रदर्शक और प्रकाश की लौ की ज्योति के उजाले से, मेरी आत्मा के सांसारिक आसक्तियों से अवरित अज्ञान मूलक अंधकार का आंशिक उन्मूलन हुआ है। इसके परिणामस्वरूप इस आत्मा को ऐसे आषदष्टा की आत्मसाधक परम्परा से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । यह परम सौभाग्य से प्राप्त, यत्किचित् सामर्थ्य के बल पर, आत्मोपकारी मेरे पूज्य गुरुदेव पूज्यपाद मुनिवर्य श्री जयन्त विजयजी म० "मधुकर" की आत्म कल्याणकारी निश्रा में जो, आत्म जागृति का मैं प्रयत्न कर रहा हूं, वह मेरी आत्मा की परिशुद्धि के प्रयत्नों का प्रथम चरण ही है।
मेरे जीवन में शुरू हुई इस परिशुद्धि की प्रक्रिया की पूर्णाहुति करने की मेरे में क्षमता है या नहीं वह तो मैं नहीं जानता, फिर भी
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राजेन्द्र-ज्योति
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