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________________ आरम्भ से ही श्रीमद् का बल स्वाध्याय पर था। यति-क्रान्ति के “कलमनामे' में नवीं कलम स्वाध्याय से ही सम्बन्धित है। उन्होंने सदैव यही चाहा कि जैन साधु-साध्वियां और श्रावकधाविकाएँ स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त हों अत: विद्वानों के लिए तो उन्होंने “अभिधान-राजेन्द्र” कोश तथा “पाइयसबुहि" जैसी कृतियों की रचना की और श्रावक-श्राविकाओं के लिए 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका जैसी सरल किन्तु क्रान्तिकारी कृतियाँ लिखीं। ज्ञान के एक प्रबल पक्षधर के रूप में उन्होंने कहा : “एमज केटलाएक विवाहादिकमां वरराजाने पहेरवा माटे कोइ मगावा आवशे तो जरूर आपवा पडशे । एवो संकल्प करीने नवनवा प्रकारना सोना रूपा हीरा मोती आदिकाना आभूषणो घडावी राखे छ, तथा वस्त्रोना वागा सिवरावी राखे छे, तेम कोइने भणवा वाचवाने माटे ज्ञानना भंडारा करी राखवामां शु हरकत आवी नडे छ ? पण एवी बुद्धि तो भाग्येच आवे।” (प्र. पृ. १५) । उक्त अंश का अन्तिम वाक्य एक चुनौती है। श्रीमद् ने इन अप्रमत्त चुनौतियों के पालनों में ही क्रान्ति-शिशु का लालन-पालन किया। उन्होंने पंगतों में होने वाले व्यर्थ के व्यय का भी विरोध किया और लोगों को ज्ञानोपकरणों को सञ्चित करने तथा अन्यों को वितरण करने की दिशा में प्रवृत्त किया; इसीलिए धार्मिक रूढ़ियों के उस युग में 'कल्पसूत्र' के छापे जाने की पहल स्वयं में ही एक बड़ा विद्रोही और क्रान्तिकारी कदम था। इसे छापकर तत्कालीन जैन समाज ने, न केवल अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया वरन् आने वाली पीढ़ियों के लिए आधुनिकता के द्वार भी खोल दिये। सभी जानते हैं “पर्युषण" जैनों का एक सर्वमान्य धर्म-पर्व है। इसे प्रायः सभी जैन सम्प्रदाय बड़ी श्रद्धाभक्तिपूर्वक मनाते हैं। पर्युषण के दिनों में दिगम्बरों में “मोक्षशास्त्र" और श्वेताम्बरों में "कल्पसूत्र" के वाचन की परम्परा है। "मोक्षशास्त्र' के दस और "कल्पसूत्र" के आठ वाचन होते हैं। "कल्पसूत्र" की बालावबोध टीका इस दृष्टि से परिवर्तन का एक अच्छा माध्यम साबित हुई। इसमें कई विषयों के साथ कुछेक ऐसे विषय भी हैं जिनका आम आदमो से सीधा सरोकार है। वाचक कैसा हो, वाचन की क्या विधि हो, शास्त्र-विनय का क्या स्वरूप हो; साधु कैसा हो, उसकी संहिता क्या हो, चर्या क्या हो इत्यादि कई विषय 'कल्पसूत्र' में सैद्धान्तिक और कथात्मक दोनों रूपों में आये हैं। असल में 'कल्पसूत्र' की यह टीका एक ऐसी कृति है जिसे उपन्यास की उत्कण्ठा के साथ पढ़ा जा सकता है। इसमें वे सारी विशेषताएँ हैं जो किसी माता में हो सकती हैं। श्रीमद् का मातृत्व इसमें उभर-उभर कर अभिव्यक्त हुआ है। हम इसे क्रान्तिशास्त्र भी यदि कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कथा के कुछ हिस्सों को छोड़कर यदि हम इसके सिद्धान्त-भाग पर ही ध्यान दें तो यह सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति का बहुत अच्छा आधार बन सकता है। प्रश्न यह है कि हम इसका उपयोग किस तरह करते हैं ? जयजयस्तस्य, प्रमोदय प्रमोदयुक्॥सोधखामिनो गडे, संति राजेंसरयः ॥ तेने काम बाला सूत्रस्य, वार्ता बादावबोपिनी ॥ ५ रुता सूत्रपदेयुक्ता, सर्वसारांशसंयुता ॥ मायोगोपहनं ।। येन, न रुत तस्य हेतवे ॥ अब्दे खवेदनदेद, (१९५०) माधवे च सितेतरे ॥ पक्षे दिने ॥हितीयायां, मंगजे लिखिता विपम् ॥३॥ इति श्रीराजेंसूनिविरचितायो प्रारूतनापायां बाजाय। बोधिनी टीका पापत्रस्य समाशा ॥ श्रीरस्तु, कल्याणमस्तु ।। संवत १४४० ना वेशारवयदि।। बीजना विवसें बालावबोधिनीटीका संपूर्ण चई॥जांबुवा नगरे । । क. सू. की बा. टी. का अन्तिम पृष्ठ (२४८); जिसमें इसकी समापन-तिथि तथा स्थान का उल्लेख है; समापनतिथि : वैशाख वदी २; संवत् १९४०; स्थान जांबुआ नगर । सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य 'कल्पसूत्र' के भाषिक व्यक्तित्व का के लिए सम्भव था ही नहीं; अतः श्रीमद् प्राचीन भाषाओं के साथ है। यह मूलतः जांबुवा नगर में संवत् १९३६ में शुरू हुई और वहीं मारवाड़ी, मालवी, गुजराती और हिन्दुस्तानी भी भली-भाँति संवत् १९४० में सम्पन्न हुई। जांबुआ नगर की स्थिति बड़ी उप- जानते थे और अपने प्रवचन बहुधा इनके मिले-जुले भाषारूप में योगी है। यहाँ गुजरात और मारवाड़ के लोग भी आते-जाते रहते ही दिया करते थे। रोचक है यह जानना कि 'कल्पसूत्र' की बालाहैं। इस तरह यहाँ एक तरह से त्रिवेणी संगम का सुख मिलता है। वबोध टीका मूलतः मारवाड़ी, मालवी, गुजराती और हिन्दुस्तानी मालवा, गुजरात और मारवाड़ तीन आंचलिक संस्कृतियों के संगम की सम्मिश्रित भाषा-शैली में लिखी गयी थी। जब इसे शा. भीमसिंह ने जांबुआ को भाषा-तीर्थ ही बना दिया है। श्रीमद् के कारण यहाँ माणक को प्रकाशनार्थ सौंपा गया तब इसका यही रूप था; किन्तु आसपास के लोग अधिकाधिक आते रहे। यातायात और संचार पता नहीं किस भाषिक उन्माद में शा. भीमसिंह माणक ने इसे के साधनों की कमी के दिनों में लोगों का इस तरह एकत्रित होना गुजराती में भाषान्तरित कर डाला और उसी रूप में इसे प्रकाशित और सांस्कृतिक मामलों पर विचार-विमर्श करना एक महत्त्वपूर्ण करवा दिया। उस समय लोग इस तथ्य को गम्भीरता को नहीं तथ्य था । यद्यपि श्रीमद् कई भाषाओं के जानकार थे तथापि मागधी, जानते थे; किन्तु बाद में उन्हें अत्यधिक क्षोभ हुआ। सुनते हैं प्राकृत और संस्कृत पर उन्हें विशेष अधिकार था। राजस्थानी वे 'कल्पसूत्र' का मूलरूप भी प्रकाशित हुआ था (?) किन्तु या तो वह जन्मजात थे, अतः मारवाड़ी एक तरह से उन्हें जन्मघुटी के रूप दुर्लभ है या फिर सम्भवतः वह छपा ही नहीं और शा. भीमसिंह में मिली थी, मालवा में उनके खूब भ्रमण हुए, गुजरात से उनके माणक के साथ ही उस पांडुलिपि का अन्त हो गया। टीका के जीवन्त सम्पर्क रहे; और हिन्दुस्तानी से उन दिनों बच पाना किसी प्रस्तावना-भाग के ११ वें पृष्ठ पर, जिसका मूल इस लेख के साथ वो.नि. सं. २५०३/ख-२ २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only rate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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