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________________ विराट व्यक्तित्त्व डॉ. अमरा जैन "जहा ससी को मुई जोग जुत्तो, नक्खत्त तारागण पखिडप्पा । खे सोहइ विमले अबममुक्के, एवं सोहइ भिक्खुमज्झे ।। दशैवैकालिक सूत्र प्र० ९, उ० १ का १५ पूज्यपाद आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने अपने जीवन के ज्ञान और क्रिया द्वारा साधुत्व का महान आदर्श उपस्थित किया है अथवा यूँ कहना अनुचित न होगा कि वे महापुरुष उस युग में अपनी उपमा स्वयं थे । "मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" आचार्य श्री का जीवन एक सच्चे महात्मा का जीवन था, वहां न छल था, न कपट था, न माया थी, न किसी प्रकार का दुराव छिपाव था। उनमें ज्ञान था पर ज्ञान का अहंकार न था, त्याग था पर त्याग का दर्प न था । बाल्यावस्था में ही अंतर्मन के त्याग और वेराग्य की जो लहर जागी उसी वैराग्य रस से आप्लावित तन मन को लेकर वे सदगुरु के चरणारविन्दों में पहुंचे और आगार से अनगार बनने की प्रार्थना की । मनोमार्ग के चितेरे संत ने कहा- "वत्स ! अनगार बनना हंसी खेल नहीं है, यह असिधारा पर चलना है, जलते अंगारों पर बढ़ना है और अभी तुम कुसुम से कोमल हो।" पर बालक का वैराग्य रंग कच्चा नहीं था, सच्चा था वह साधना के शूलों से भयभीत होने वाला नहीं था । गुरुदेव ने परीक्षा की कसौटी पर कसने के पश्चात् उन्हें दीक्षा दी। योग्य गुरु के योग्य शिष्य ने जैनागमों का गहरा अध्ययन प्रारंभ किया । अल्पकाल में ही शिष्य ने गंभीर अध्ययन कर अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया । Jain Education International साधना के कठोर मार्ग पर बढ़ने के पश्चात् अनेक विघ्न आए बाधाएं आई, जवानी का तूफान आया पर आचार्य श्री एक वीर सैनिक की भांति आगे बढ़ते रहे, अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले यही उनके जीवन का मूलमंत्र था। भविष्य की चिन्ता छोड़ भविष्य १६ के निर्माण में एक जुट रहे । उर्दू के एक शायर की ये पंक्तियां आचार्य श्री पर पूर्णतया चरितार्थ होती हैं - "जिन्दगी हर मोड़ पर मुझसे यह देती है सदा । फिक्रे फर्दा छोड़िए तामीरे फर्दा कीजिए || " ऐ मनुष्यो ! भविष्य की चिन्ता छोड़कर भविष्य के निर्माण में जुट जाओ यही तुम्हारी मौजूदगी का संसार में एक निशान रहेगा। आचार्यश्री ने अपने स्नेह, वात्सल्य तथा दूरदर्शिता के आधार पर जैन समाज का जिस दीर्घं दृष्टि से उद्धार तथा निर्माण किया है वह वास्तव में ही उनका सफल कृतित्व है । संसार एक विष वृक्ष है इस विष वृक्ष पर अनेक कटु विष फल लगते हैं । उन अनेक विष फलों में दो अमृत फल भी लगते हैं । उन दो अमृत फलों में से एक है- सत्संगति और दूसरा है - सत्साहित्य | विश्व-विभूति आचार्यश्री ने ये दोनों अमृतफल संसार के विषवृक्ष पर पैदा किए हैं। अपने उच्च चरित्रसंपन्न जीवन के समागम द्वारा लोगों को सत्संगति का लाभ उन्होंने दिया है लेकिन यह अमृत फल वे कुछ समय तक ही जनता को दे सके पर उन्होंने जो साहित्य सृजन किया उस अमृतफल का लाभ जनता को हजारों वर्षों तक मिलता रहेगा । प्राकृत तथा संस्कृत के किसी भी ग्रंथ का अध्ययन श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज कृत “अभिधान राजेन्द्र कोय" का संदर्भ लिए बिना पूर्ण नहीं होता है। इस विराट कार्य को पूरा करने में गुरुदेव ने अपने जीवन के चौदह अमूल्य वर्ष लगाये। यह कोश गागर में सागर है । यह कार्य पूज्यश्री का जीवित स्मारक है । आचार्य श्री का जीवन इतना व्यापक और विराट है कि उनकी परिचय प्रशस्ति को शब्दों में बांधना मानो सूर्य को दीपक दिखाना है इसी दृष्टि को समक्ष रखते हुए पाश्चात्य दार्शनिक हेगले ने कहा हैWhat is well known is not necessarily known merely because it is well known. बस, केवल इसी आंकाक्षा के साथ कि संत जीवन की मधुर सुवास हमारे मन मस्तिष्क में सदा धर्म की ओर साधना की ताजगी बनाए रखे मैं अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी के चरणों में अर्पण करती हुई स्वयं को कृतकृत्य समझती हूं । राजेन्द्र-पोति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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