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________________ परिषद् की उपादेयता सुजानमल जैन विस्तृतिक सिद्धान्त के समुद्धारक विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परम शिष्य व्या०वा० श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की स्थापना करके समस्त त्रिस्तुतिक समाज पर महान उपकार किया है । यह परिषद मानो एक दिव्य प्रकाश-पुंज है। इसका प्रकाश पाकर भारत में सुदूर तक फैला हवा समस्त त्रिस्तुतिक समाज एकता के सूत्र में बंधा दिखता है। परिषद ने अज्ञान के अंधकार में भटकने वालों को ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है। समय समय पर राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद की बैठकें विभिन्न प्रान्तों में आयोजित होती रहती हैं। परिषद् के निर्णयानुसार समाज में शैक्षणिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु कार्यक्रम निर्धारित किये जाते हैं और तदनुसार स्थानीय परिषदों द्वारा उस पर आचरण किया जाता है। इस प्रकार समाज निरन्तर प्रगति की ओर उन्मुख होता रहता है। गांव-गांव में परिषद की शाखाएं हैं। शाखा के अध्यक्ष, मंत्री एवं अन्य पदाधिकारी समाज के द्वारा निर्वाचित होकर नियमानुसार शाखाएं चलाते हैं । इन शाखाओं का प्रमुख कार्य धार्मिक शिक्षा का प्रसार करना है, इसलिये जगह जगह पर पाठशालाएं चलाई जाती हैं और बालकों को धार्मिक ज्ञान दिया जाता है । इसके अलावा परिषद के द्वारा जो भी कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं उससे समाज संगठित होता है। इस प्रकार परस्पर स्नेह और आनन्द की वृद्धि होती है। हमें इस बात का गौरव है कि हम सब राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद के सदस्य हैं। हम परिषद के प्रति उत्तरदायी हैं। हम सब गुरुदेव के द्वारा निर्देशित नीति-रीति का पालन करते हुए स्व-पर का कल्याण करते हैं। जीवन विकास में आध्यात्मिक ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। समय-समय पर परिषद द्वारा शिविरों का आयोजन किया जाता है, इन शिविरों में दूर दूर से विद्यार्थी आकर भाग लेते हैं और धर्म एवं संस्कृति का परिचय प्राप्त करते हैं। शिविर का महत्व समझते हुए धनिक लोग शिविर हेतु यथाशक्ति आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। त्रिस्तुतिक समाज के लोग दूर दूर तक बिखरे हुए हैं। उन लोगो में एकता का भाव निर्माण करने का प्रमुख साधन परिषद् ही है। परिषद् द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए वे निश्चित स्थान पर एकत्रित होते हैं परस्पर विचार विनिमय करते हैं और कार्यक्रम सम्पन्न करते हैं । इस प्रकार परस्पर में प्रेमभाव भी बढ़ता है। समाज के आर्थिक विकास हेतु भी परिषद् द्वारा प्रयत्न किया जाता है। समाज के अभावग्रस्त परिवारों की उनकी मान मर्यादा ध्यान में रखते हुए यथाशक्ति मदद की जाती है। उन्हें उनकी आजीविका के लिए साधन भी प्रदान किये जाते हैं। कहीं-कहीं सहकारी बैंक की भी स्थापना की गई है। उसमें स्थानीय सदस्य समय समय पर पूंजी जमा करते रहते हैं और आवश्यकतानुसार सदस्यों को कम व्याज पर ऋण देकर सहयोग प्रदान करते हैं । ऋण लेने वाले सदस्य ऋण का भुगतान निधारित किश्तों में समयावधि में ही करते हैं। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में भी परिषद् ने अपना एक कदम आगे बढ़ाया है। हम जानते हैं कि समाज की बिखरी हुई शक्ति को संगठित करने और एकता की कड़ी में पिरोने का अनुपम कार्य परिषद कर रही है। इसमें प्राण फूंकने का सबसे महान कार्य मुनि श्री जयन्तविजयजी "मधुकर" कर रहे हैं। उनके सान्निध्य से परिषद का न केवल स्थायित्व प्राप्त हुवा है अपितु परिषद स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव के सपनों को साकार रूप देने में भी सफल हो रही है और विकास के पथ पर अग्रसर हो रही है। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव द्वारा संस्थापित परिषद की उपादेयता सर्वश्रुत है। परिषद मूलभूत उद्देश्यों की पूर्ति में ही समाज की उन्नति निहित है इसमें ही "जीओ और जीने दो" सूत्र की सार्थकता है और इसी में ही स्व-पर का कल्याण है। वी. नि. सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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