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________________ उपस्थित थे। पांचवां अधिवेशन पुनः श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर हुआ और इसे सान्निध्य वर्तमानाचार्यदेव पूज्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने तथा दिशा निर्देशन पूज्य मुनिराज श्री जयन्त विजयजी "मधुकर" ने प्रदान किया। छठा अधिवेशन राणापुर में सम्पन्न हुआ। सातवां अधिवेशन पुनः श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पर संपन्न हुआ। अष्टम अधिवेशन उज्जैन में सम्पन्न हुआ। परिषद की गतिविधियां मध्य में शिथिल हो गई लेकिन पुनः उसने जावरा में आयोजित नवें परिषद अधिवेशन से अंगड़ाई ली । प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की स्मृति में नवनिर्मित दादावाडी के पवित्र प्रांगण में इस अधिवेशन ने नया चमत्कार किया। परिवार शाखाएं एकदम सक्रिय हो गईं। डा. प्रेमसिंहजी राठौड़ (रतलाम) परिषद के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और दस की संख्या को पूर्णता देने वाला परिषद का अधिवेशन श्री लक्ष्मणीजी तीर्थ (अलीराजपुर) में श्री चन्द्रप्रभु स्वामी की पावन प्रभाव छाया में संपन्न हुआ। इस अधिवेशन में पहली बार दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। परिषद के कदम उत्तर भारत के बाद दक्षिण भारत के धरातल पर भी मुद्रित दिखाई देने लगे। वर्तमान ग्यारहवां अधिवेशन निम्बाहेड़ा (जिला चित्तौड़गढ़ राजस्थान) में हो रहा है। जिसके निर्णय परिषद की प्रगति के लिए अनूठे कदम होंगे। जीवन प्रणाली के बदले हुए संदर्भो में परिषद को नवीन उत्तरदायित्वों का वहन करना है। आशा है वह पूरी तरह इस हेतु सक्षम तथा सुयोग्य सिद्ध हो पाएगी। परिषद तथा समाज के संबंधों के विषय में स्व. पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज संस्था की स्थापना के समय ही तेजोमय प्रकाश प्रसारित कर गए हैं। यह सवाल उठाना ही गैर मौजू है कि क्या परिषद समाज से पृथक कोई इकाई है क्योंकि परिषद कोई नूतन चिन्तन या विचार नहीं बल्कि समाज का वैज्ञानिक व्यवहार है, परिषद समाज की आशाओं का क्रियात्मक स्वरूप है, परिषद समाज की मान्यताओं के मूल्यों की संशोधक तथा संवाहक है। परिषद समाज की प्रहरी और सामाजिक चेतना की उद्गम बिन्दु है। परिषद तो समाज में सेवा का मंत्र सिद्ध करने वाली माध्यम मात्र है। वह समाज को ऊंचा ले जाना चाहती है। उसकी ऊंचाइयों का लक्ष्य तथ्य परक एवं गठनतापूर्ण है। समाज व परिषद • को पृथक् देखने का विचार ही विनाशकारी है। परिषद समाज के लिए निर्मित है और समाज का भरपूर विश्वास इसे प्राप्त है । परिषद के समस्त अधिवेशनों में समाज के अग्रगण्य नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की पूरी उपस्थिति रही है। परमपूज्य मुनिराज श्री जयन्तविजयजी महाराज "मधुकर" का स्पष्ट कथन है कि "परिषद का संबंध समाज के साथ मछली तथा पानी की तरह है।" परिषद समाज के प्रति समर्पित है और उसका यह समर्पण भाव समाज की तरक्की तथा खुशहाली के लिए ही है। युवावर्ग समाज का ऐसा अंग है जिसकी उपेक्षा असह्य है। जिसकी क्षमता का उपयोग समाज के लिए वरदान है। ऐसी स्थिति में परिषद युवकों का समुदाय बनकर ही नहीं रही है, अपितु उसने समाज के समस्त दायित्वों को निर्वहित करने की कोशिश की है। परिषद व समाज एक दुसरे के पर्यायवाची शब्द बन गए हैं।" आज भी समाज का स्नेह परिषद को बराबर प्राप्त हो रहा है। परिषद जिन शुभ भावनाओं पर निर्मित है, उसकी ज्योत्सना समाज तक अखंडरूप में पहचती रहेगी और समाज उससे लाभ प्राप्त कर अपने मंगल व सद् के लिए परिषद को प्रयुक्त करती रहेगी। परिषद ने केवल संगठनात्मक वातावरण बनाने का ही प्रयत्न नहीं किया है। वह कई उत्तरदायित्वों को निर्वहित करने हेतु सक्रिय भी रही है। परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने अपने देहत्याग से पूर्व परिषद को दिशा निर्देशन करने हेतु परमपूज्य विद्वान मुनिराज पं. श्री अनन्त विजयजी महाराज को निदिष्ट किया था साथ ही त्रिस्तुतिक समाज के मुखपत्र "शाश्वतधर्म" के संचालन का जिम्मा भी सौंपा था। परमपूज्य मनिराज श्री जयन्त विजयजी महाराज की अटूट उत्साहशीलता तथा उसकी दिव्या प्रेरणाओं से आज परिषद प्रगतिगामी है तथा शाश्वतधर्म का संचालन कर रही है। "शाश्वतधर्म" पाक्षिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है तथा समस्त जैन समाज के समाचारों व तीर्थंकर प्रणीत विचारों को प्रसारित करने के अपने कर्तव्य की पूर्ति कर रहा है। परिषद की देश भर में फैली हुई शाखाएं इसके उद्देश्यों की सम्पूर्ति के लिए कार्य कर रही हैं। जिनका विवरण अन्यत्र दिया गया है। परिषद का अखिल भारतीय कार्यालय उन्हें परामर्श देता है, उन्हें नियमित बनाए रखता है तथा आवश्यक होने पर योगदान भी देता है। इन शाखाओं द्वारा पाठशालाओं, विद्यालयों, पुस्तकालयों, बचत योजनाओं व औषधालयों का संचालन किया जा रहा है। स्वयंसेवक दल भी इनके अन्तर्गत गठित हैं। समाज के विभिन्न समारोहों के समय सेवाकार्य एवं विभिन्न पर्यों पर समारोहों का आयोजन परिषद शाखाएं प्रमुखता के साथ करती हैं। वे सेवा का मंच, त्याग का यज्ञ तथा कर्तव्य भावना का क्षेत्र बन गई हैं। परिषद द्वारा धार्मिक शिक्षा को युवकों में क्रांति की तरह विकसित करने के लिए श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पर जैन धार्मिक शिविर का आयोजन किया गया जिसमें लगभग ८० छात्रों ने एक मास तक आध्यात्मिक धार्मिक एवं नैतिक जीवन पद्धति का शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त किया तथा वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के आचार्य महोत्सव, यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के समाधि मंदिर प्रतिष्ठात्सव के समय परिषद स्वयंसेवकों ने सेवा व परिश्रम के द्वारा अपनी अद्भुत निष्ठा का परिचय दिया, जिसकी प्रशंसा समाज द्वारा सर्वत्र की गई। समाज के जागरूक और परिषदों को जीवनदायी बनाए रखने के उद्देश्य से संस्था के पदाधिकारियों ने विभिन्न प्रांतों में दौरे किये जिनका परिणाम काफी विधेयात्मक प्राप्त हुआ। परिषद व समाज के मध्य अधिकाधिक समन्वय की भावना प्रेरित हुई । अधिवेशनों के अवसर पर परिषद के उद्देश्य तथा प्रणाली पर बार-बार बहस हुई एवं परिषद के साधनों का मंथन किया गया। वी. नि.सं. २५०३ Jain Education 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SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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