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________________ श्री राजेन्द्र स्तवन मुनि धर्मविजय ॥ दोहा ॥ अर्हन्मुख उत्पन्न भई, भारती ब्रह्म सुताय । जस स्मरण संक्षेप थी, लीला अधिक लहाय || १ || पथ पंकज प्रणमुं सदा, गुण गण रयण भंडार । ज्ञान नयनदाता गुरु, उतारें भवपार ॥२॥ श्रीमद्वीर जिनेश्वरू, तस कुल सोहमस्वाम पाट परंपर पेखतां ऊग्यो दिनकर धाम ॥३॥ तेह तणा सुपसायथी, प्रगट्यो पुण्य अंकुर | दुःख दुर्गतिदूरेटली भयो आनंद भरपूर ॥ ४ ॥ ।। ढाल ।। शम-दम गुणना आगरू रे लाल; नर; लाल; नर; ভূ७ लाल; नर-भविजन ॥१॥ गुरु गिरुआ गणधार रे सुगुण पंच महाव्रत पालता रे संयम सतरे प्रकार रे सुगुण भविजन सेवो भावसुं प्रणम्या पातिक जाय रे सुगुण बारा भेदे तप तपे रे पाले पंचाचार रे-गुण भय साते भड भांजिया रे तेरे कर्या निरधार रे सुगुण विद्या चऊद सुशोभता लान; पट् शास्त्रोना जाण रे-सुगुण नर; मंत्रे तंत्र नवि केलवे रेलाल; निशि-दिन रहे जिन आण रे सुगुण नर-भविजन. ॥३॥ रे नर - भविजन ॥४॥ बावीस परिग्रह त्यागिया रे लाल; जाग्यो अनुभव जोर रे सुगुण नर; समता सखी संग खेलता रे लाल; मार्यो मोह-मद-चोर - रे सुगुण अनुभव रस प्याला पिये रे भोगवे निजगुण भोग - अप्रमत्त भारंड परे रे लाल; साधे सूधो जोग रे-मुगुम गर भविजन ॥५॥ निदा-स्तुति श्रवणे सुणी रे लाल ; न धरे राग न रोष रे सुगुण नर; शूरा परिषह जीतवा रे लाल; चारित्र में नहि दोष रे सुगुण नर-भविजन ॥ ६ ॥ तेजवन्त दिनकर जिसा रे उदधिसम गंभीर रे-सुगुण अडिग मेरु पर्वत जिसा रे लाल; शशि सो अमल शरीर रे सुगुण नर-मविजन ॥७॥ राजपुताने पूर दिशि रे लाल; नगर भरतपुर ठाम रे सुगुण नर; ओसवंश कुल दिनमणि लाल; राजेन्द्रसूरि जसु नाम रे सुगुण नर-भविजन. ||८|| लाल; नर; लाल; नर; लाल; नर- भविजन. ॥२॥ वी. नि. सं. २५०३ सुर नर आवे प्रमोदसुं रे लाल; धन धन तस अवतार र सुगुण नर; धरम विजय मोहे दीजिये रे लाल; भवदधि पार उतार रे-सगुण नर Jain Education International लाल; नर भविजन सेवो भाव सुं रे लाल ॥९॥ मेरे गुरु राजेन्द्र को मानमल पारखे 'बसन्त' शत शत बार है नमन मेरा, मेरे गुरु राजेन्द्र को । सप्तकोष के निर्माता को, उस जैन जगत महेन्द्र को || १ || अनुवादित हुई जिनकी वाणी, कई देश और विदेश में 1 तस्वीर में देखो जरा, महामूर्ति किस देश में ॥ राजेन्द्र ज्योति जल रही, है कोटि कोटि प्रणाम उस शैलेन्द्र को || २ || शत शत उज्ज्वल सितारा हो गया, भारत के इतिहास में । नव प्रेरणा का फूंका लाखों की जन सांस में || क्या सुमन श्रद्धा चढ़ाऊँ, अवनि दमकते चन्द्र को ॥३॥ शत शत प्रेरणा की अनुभूतियाँ दी, विश्व विभूति निराली थी । सरस्वती की कठ विराजे, वाणी अमृत प्याली थी । For Private & Personal Use Only दलित जाति दल दल निर्वारक, तंत्र मंत्र ज्ञाता उस धर्मेन्द्र को || ४ || शत शत दिव्य ज्योति आज उनकी, विद्या चन्द्रसूरि के हाथ है। सान्निध्य में आचार्य श्री के, 'मधुकर' जयन्त विराट है । सुश्रावकों से शोभित सारे, है नमन मुनिवर्ग उन देवेन्द्र को ||५|| शत शत ५ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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