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________________ परिषद की उपलब्धियाँ श्री सौभाग्यमल सेठिया किसी भी संस्था की उपलब्धियों का आकलन करने से पूर्व यह विचार मन में स्वाभाविक रूप से उठता है कि वह संस्था किसकी उपलब्धि है और क्यों ? जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता तब तक संस्थागत उपलब्धियों का आकलन ठीक रूप से करने में बाधा उपस्थित होती है, अतः इस प्रश्न का निराकरण करते हुए ही उपलब्धियों का विवेचन किया जाना चाहिये । 1 स्वर्गीय पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज साहब के अंतिम दिनों के चिन्तन की समाज को जो भेंट प्राप्त है; वह है -- 'अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन युवक परिषद इसके उद्देश्य से ही लक्षित होता है कि वे चारों उद्देश्य समाज को सही चिंतन की ओर अग्रसर कर समाज को सही दिशा बोध देते हुए संगठित कर उसे जैन दर्शन एवं जैन संस्कृति से अधिकाधिक अंशों में अवगत कराते हुए, सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करते रहें । यही कामना उनके मन में रही। उसके फलस्वरूप परिषद का उद्भव समाज में हुआ । जिज्ञासा जागृत होगी कि परिषद का उद्भव कब हुआ और उसके चार उद्देश्य कौन से हैं? परिषद की जन्मस्थली किस स्थान पर रही हुई है ? इसका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है- Jain Education International पूज्यपाद आचार्य प्रवर श्रीमद् विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब ने मोहनखेड़ा तीर्थ ( राजगढ़ - धार) में कार्तिक शुक्ला १५ संवत् २०१६ के दिन परिषद की स्थापना कर समाज को अपने चिन्तन के नवनीत के रूप में परिषदरूपी संस्था समाज के उत्थान के लिए स्थापित की। इस संस्था की सबलता के द्योतक चार स्तंभ रूप चार मूल उद्देश्यों की उद्घोषणा समाज के समक्ष करते हुए समाज को साग्रह कहा--' इस संस्था से यदि कुछ उपलब्धियां प्राप्त करना चाहो तो निम्नलिखित आधार रूप चार वी. नि. सं. २५०३ स्तंभ समान उद्देश्यों का निरन्तर यथाशक्ति सिंचन -सृजन लगातार करते रहना पड़ेगा; तभी संस्था फलीभूत होकर फलदात्री बनेगी । संस्था मात्र के गठन करने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाया करती । जिस प्रकार किसी स्थान पर खड़े होकर किसी अन्य स्थान का विचार मात्र करने से उस स्थान पर बिना चले नहीं पहुँचा जा सकता उसी प्रकार बिना सृजन- सिंचन के पौधे पल्लवित, पुष्पित तथा फलदाता नहीं बन पाते। उसी क्रम में यदि अपने श्रम से समाज का प्रत्येक घटक सृजन नहीं करेगा तथा अपने त्याग से सिंचित नहीं करेगा तब तक संस्था परसवित पुष्पित एवं फलदात्री नहीं बन पायेगी । अब इसके उद्देश्य क्या हैं, यह जानना होगा। बिना आवश्यकता के आविष्कार नहीं होता। किसी चीज का अभाव एक आवश्यकता की अनुभूति देता है। अनुभूति होने पर उस अभाव की पूर्ति करने के लिए आविष्कार किया जाता है। उसी प्रकार समाज में विद्यमान अभावों को निःशेष करने के लिए परिषद के चार आत्मार्थीपरमार्थी लक्ष्य निर्धारित किये गये वे निम्नलिखित है-(१) सामाजिक संगठन । 1 (२) धार्मिक शिक्षा का प्रसार --अज्ञान तिमिर को ज्ञान रूपी सूर्य से निःशेष करना । (३) समाज सुधार -- समाज में छाई हुई कुप्रवृत्तियां और कुरीतियों का उन्मूलन करना । जिनके कारण समय और धन का अपव्यय होता है । (४) समाज का आर्थिक विकास - अर्थाभाव को समाज से दूर हटाना । नवयुवकों ने गुरुदेव की वाणी में रहे हुए रहस्य को अनुभव कर अपने आपको संस्था के प्रति समर्पित करने की निष्ठापूर्वक शपथ ग्रहण की। For Private & Personal Use Only ३१ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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