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________________ समझो और जी चाहे तो अंगीकार करो । बिना साधना के जैन धर्म को समझाने का प्रयास खरगोश को शृंगन्याय के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यही कारण है कि जैन धर्म में सदियों पूर्व व्यक्ति को वैचारिक दासता से स्वतंत्र किया और लोक भाषाओं के माध्यम से सारे देश की स्वाधीन चेतना को जगाया । जैन धर्म ने ही सबसे पहले एक लोकाभिमुख क्रांति का शंखनाद किया था और मुट्ठीभर लोगों के बौद्धिक और शास्त्रीय शोषण को ललकारा था । वैज्ञानिक क्षेत्र में भी जैन दर्शन की बड़ी देन है जिसका पूर्ण तटस्थ मूल्यांकन अभी होना शेष है। पुदयत्न के सूक्ष्म निरूपण द्वारा इसने विज्ञान को हजारों साल पूर्व आश्चर्यजनक तथ्य दिये हैं । परमाणु की व्याख्या एवं सृष्टि रचना के रहस्यों को खोलने में समर्थ हुवा । जैनागम से उपलब्ध कई वैज्ञानिक तथ्यों को आज के वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। जैन धर्म का भेद विज्ञान भी एक अनूठी देन है। विशेषावश्यक भाष्य, ज्ञानसार, सूत्रकृतांग, भगवतिसूत्र, गोमट्टसार, सर्वार्थसिद्धि, पंचास्तिकाय, द्रव्य संग्रह, तत्वार्थ सूत्र एवं ऐसे ग्रन्थ रत्न एक लम्बी साधना के परिणाम हैं। जैन तपश्चर्या कोई शरीर ताड़ना नहीं है वह भेद विज्ञान का अपूर्व सत्यान्वेषण है । जो कष्ट एक वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों की खोजबीन में उठाता है । जैन मुनि भी वैसी ही कठोर साधना आनुभूतिक विश्लेषण अथवा चेतन के जड़ से पृथक्करण में करता है। जैन दर्शन स्वानुभूति का विज्ञान है और वास्तक में उसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये । इसी वैज्ञानिक चितन और परखनिधि के कारण जैन धर्म प्राचीन होते हुए भी चिरनूतन है। मनष्यों को पशुओं से विकसित मानकर वैज्ञानिक डार्विन ने विकास के एक नये सिद्धान्त का प्रवर्तन किया । किन्तु जैन धर्म ने मनुष्य को मूल में मनुष्य मान कर ही उसके क्रमबद्ध विभाग की कथा कही है। जैन धर्म सम्यक्त्व, औचित्य और उत्तमता पर बल देता है। वह कहता है कि जो सत्य है, उसे उसकी संपूर्णता में ढूंढो, जो उचित है वह कहो, करो और अंत तक देखो कि सत्य भी तुम्हारे जीवन में है या नहीं ? रास्ता भले ही लम्बा हो, किन्तु अपावन न हो। उत्कृष्टता जहाँ भी हो उसका वरण करो। ० (जैन विद्वानों द्वारा. . . . पृष्ठ १८१ का शेष ). १०. लोलिम्बराग १२. भाव निदान हिन्दी भाषा में रचित यह एक महत्वपूर्ण वैद्यक रचना है । इसके कविवर यति गंगारामजी की यह तीसरी वैद्यक रचना है जो अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ संस्कृत के इसी नाम से आयुर्वेदीय निदान पद्धति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस ग्रंथ का प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रंथ का दूसरा नाम रचना काल वि.सं. १८८८ है। यह ग्रंथ पद्यात्मक प्राचीन शैली में "वैद्य जीवन" भी है-ऐसा श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से रचित है। ज्ञात होता है । वस्तुतः संस्कृत भाषा में कविवर लोलिम्ब राज ने ___ इन तीनों में से किसी भी ग्रंथ में लेखक ने अपने विषय में किंचित् सुललित शृंगारिक शैली में "वैद्य जीवन" नामक ग्रंथ की रचना मात्र भी प्रकाश नहीं डाला है। इससे उनका व्यक्तिगत जीवन की है जो प्रकाशित है और वर्तमान में उपलब्ध है। प्रस्तुत उपर्युक्त परिचय अज्ञात है। इन तीनों रचनाओं का उल्लेख-"नागरी कृति इसी ग्रंथ का अनुवाद है । इस ग्रंथ की रचना यति गंगारामजी प्रचारिणी पत्रिका" में प्रकाशित "दी सर्च फार हिन्दी मैन्युस्कृष्ट द्वारा की गई है जो अमृतसर निवासी यति सूरजरामजी के शिष्य इन दि पंजाब" (१९२२-२४) में पृष्ठ ३० पर किया गया है। थे । इस ग्रंथ का रचना काल सं. १८७२ है। उपर्युक्त सभी ग्रंथ पंजाब अथवा सिंध प्रान्त में रचित हैं। अंतिम ११. सूरत प्रकाश दो ग्रंथों में रचना स्थान का उल्लेख नहीं है, तथापि उनकी रचना यह ग्रंथ भी कविवर यति गंगारामजी द्वारा रचित है । इस ग्रंथ पंजाब के ही किसी स्थान में की गई है यह असंदिग्ध है । इस सम्पूर्ण का नामकरण सम्भवत: रचयिता ने अपने गुरु के नाम का सम्बन्ध विवरण से यह स्पष्ट है कि अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित करने की दृष्टि से किया है । इसका रचना काल सं. पंजाब में जैन यतियों ने हिन्दी के माध्यम से अनेक ग्रंथों की रचना १८८३ है । इसे "भाव दीपक" भी कहा जाता है। इसमें विभिन्न कर आयुर्वेद को जीवित रखने और हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण रोगों की चिकित्सार्थ अनेक औषध योगों का उल्लेख है। योगदान दिया है। बी.नि.सं. २५०३ १८३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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