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________________ नाद सुख हैं जो राजा के पुत्र थे। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना संवत् १६४१ में की थी । ग्रंथ में प्राप्त उल्लेख के अनुसार अकबर के राज्य में सीहनंद नगर में चैत्र शुक्ला द्वितीया (सं.१९४१) को उन्होंने इस ग्रंथ की रचना पूर्ण की । ग्रंथ के आरम्भ में "श्रावक कुल ही निवास लिखकर उन्होंने अपना श्रावक होना प्रतिपादित किया है । ग्रंथ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ किसी अन्य ग्रंथ का अनुवाद मात्र नहीं है, अपितु मौलिक रूप से इसकी रचना पद्य निबद्ध रूप से की गई है । संपूर्ण ग्रंथ में आद्योपान्त रचना की मौलिकता का सहज ही आभास मिलता है। इतना अवश्य है कि कवि ने अनेक वैद्यक ग्रंथों का अध्ययन एवं मनन करने के उपरान्त ही इसकी रचना की है । आयुर्वेद विषय में कवि का पूर्ण अधिकार होना इस कृति द्वारा स्पष्ट है। कवि के द्वारा ग्रंथ के आदि में जो मंगलाचरण किया गया है उससे भी यह बात स्पष्ट है कि ग्रंथ रचना से पूर्व कवि ने आयुर्वेद शास्त्र का गहन अध्ययन किया है, अनेक ग्रंथों का मनन किया है और उससे अजित ज्ञान को अनुभव द्वारा परिमार्जित किया है। . यह सम्पूर्ण ग्रंथ कुल सात समृद्ध खंडों में विभक्त है। इसमें कुल ३३२ गाथाएं हैं । इस ग्रंथ की एक अन्य प्रति में आद्यन्त मंगलाचरण रहित अनेक आयुर्वेद ग्रंथों के प्रमाण सहित १६७ गाथाओं का एक और ग्रंथ है। उसके अन्त में भी “इति वैद्यमनोत्सवे" लिखा है। ये दोनों ग्रंथ दोहा, सोरठा एवं चौपाई में रचे गए हैं। इनमें से एक ग्रंथ प्रकाशित हो चुका है । किन्तु वह भी अब सम्भवतः उपलब्ध नहीं है। २. वैद्य हुलास इसका दूसरा नाम “तिब्ब सहाबी" भी है । इसका कारण यह है कि लुकमान हकीम ने फारसी में “तिब्ब साहाबी" नामक जिस ग्रंथ की रचना की है उसी का यह हिन्दी पद्यानुवाद मात्र है । "तिब्ब साहाबी" एक प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है । अतः ऐसे ग्रंथ का अनुवाद निश्चय ही उपयोगी साबित होगा। हिकमत के फारसी ग्रंथों का अनुवाद उर्दू भाषा में तो हुआ है, किन्तु हिन्दी में वह कार्य बिल्कुल नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में यह एक साहसिक प्रयास ही माना जायगा कि हिकमत विषय प्रधान ग्रंथ का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो वह भी पद्यमय शैली में । इस ग्रंथ के अनुशीलन से अनुवादक का फारसी भाषा का विद्वान होना और हिन्दी भाषा पर पूर्ण अधिकार होना निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। अनुवादक में कवित्व प्रतिभा का विद्यमान होना भी असंदिग्ध है। इसके अतिरिक्त हिकमत विद्या और वैद्यक शास्त्र का उनका विद्वान होना भी सिद्ध होता है।। इस ग्रंथ के रचयिता कवीवर मूलक हैं। 'श्रावक धर्मकुल को नाम मलूकचन्द्र" इन शब्दों के द्वारा अनुवादक ने अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रंथ के आदि में किए गए मंगलाचरण के अनन्तर लेखक ने उपर्युक्त रूप से संक्षेपतः अपना उल्लेख किया है, अपना व्यक्तिगत विशेष परिचय कुछ नहीं दिया। यही कारण है कि कवि का कोई विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता। इस ग्रंथ में अन्य ग्रंथों की भांति अन्तः प्रशस्ति भी नहीं है। इससे ग्रंथ रचना का काल और रचना स्थान दोनों अज्ञात हैं। यह ग्रंथ आदि से अन्त तक एक ही प्रवाह में रचित है, अन्य वैद्यक ग्रंथों की भांति खण्डश: विभक्त या अध्यायों में विभाजित नहीं है, अथवा मूल ग्रंथ तिब्ब साहाबी खण्डशः विभक्त न होने और एक ही प्रवाह में निबद्ध होने के कारण उसका भावानुवाद भी एक ही प्रवाह में निबद्ध है। इस ग्रंथ गाथाओं की कुल संख्या ५१८ है। ३. रामविनोद ___इस ग्रंथ के रचयिता कविवर रामचन्द्रजी हैं । यह ग्रंथ सुललित पद्यमय शैली में विरचित है। इससे लेखक की कवित्व प्रतिभा का सहज ही आभास मिल जाता है। जिस समय इस ग्रंथ की रचना की गई थी उस समय जन सामान्य के लिए संस्कृत एक दुरूह और ' दुर्गम भाषा मानी जाती थी। उस समय आयुर्वेद के प्रायः सभी प्रमुख ग्रंथ संस्कृत भाषा में ही निबद्ध थे। अतः जन सामान्य के लिए उनका अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं था। कविवर रामचन्द्रजी ने उस समस्या को समझा और तत्कालीन प्रचलित आयुर्वेद के कतिपय प्रमुख ग्रंथों-चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, योगचिन्तामणि, राजमार्तण्ड, रसचिन्तामणि आदि के आधार पर जन सामान्य की सुगम भाषा शैली में "राम विनोद” नामक ग्रंथ की रचना की। - इस ग्रंथ की रचना सं. १७२० में मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी बुधवार को अवरंगशाह (औरंगजेब) के राज्यकाल में पंजाब के बन्नु देशवर्ती शक्की शहर में की गई। यह ग्रंथ सात समुद्र देशों में विभक्त है और इसमें कुल १९८१ गाथाएं (दोहा, सोरठा, चौपाई) लिखी गई हैं । ग्रंथ समाप्ति के बाद भी इसमें ५३ गाथाएं और हैं जिनमें ३९ गाथाएं नाड़ी परीक्षा सम्बन्धी और १३ गाथाएं मान प्रमाण सम्बन्धी हैं। कविवर रामचन्द्रजी ने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया है, मात्र अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है जो निम्न प्रकार है-खरतरगच्छीय जिनसिंह सूरि के शिष्य पद्मकीर्ति थे, पद्मकीति के शिष्य पद्मरंग थे और पद्मरंग के शिष्य कविवर रामचन्द्र थे जिनके द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गई है। इस परम्परा के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्तिगत विवरण का उल्लेख न होने से उनके व्यक्तिगत जीवन का परिचय अज्ञात है। इस ग्रंथ की रचना के पश्चात् ग्रन्थकार ने "वैद्यविनोद" नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना भी की थी, जिसके विषय में ग्रंथ के अन्त में प्रशस्ति में कवि ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया हैपहली कीनो राम विनोद । व्याधिनिकन्दन करण प्रमोद । वैद्य विनोद यह दूजा किया। सजन देखि खुशी होई रहिया ।। इस प्रकार कविवर रामचन्द्र द्वारा रचित दो कृतियों का उल्लेख मिलता है । अन्यान्य पुस्तकालयों में ये दोनों प्रतियां वर्तमान में उपलब्ध होती है। ४, वैद्य विनोद जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कविवर रामचन्द्र की यह दूसरी कृति है । इस ग्रंथ की रचना भी सरल पद्यमय शैली में १८० ... राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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