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________________ श्रद्धाञ्जलि यह एक अत्यन्त ही गौरव का विषय है कि श्रीमद् १००८ श्री आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. के १५० वें जन्म-दिवस के उपलक्ष में 'राजेन्द्र ज्योति' नामक ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है। जैन साहित्य वाङ्मय में श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का अद्वितीय स्थान है। उन्होंने अपने अनुपम ज्ञान भण्डार और अद्वितीय लेखन कला से जैन साहित्य को जो ज्ञान-निधि प्रदान की है, वह युग-युग तक आचार्यश्रीजी की याद दिलाती रहेगी। आचार्यजीजी का अभिधान राजेन्द्र कोष तो ऐसी अभूतपूर्व रचना है, जिसका उपयोग केवल जैन-विद्वान् ही नहीं, अपितु अन्य विद्वान भी करते हैं । यद्यपि आचार्यजी का पार्थिव शरीर इस संसार में नहीं है, तथापि उनके द्वारा रचित ५८ ग्रंथ आज भी मौजूद हैं जिनके द्वारा आचार्यजी ने ज्ञान का मार्ग दर्शाया था। ऐसे महान् आचार्यजी महाराज जिन्होंने अपनी त्याग, तपस्या और ज्ञान निधि से न केवल अपना जीवन सफल बनाया, परन्तु विश्व को सम्यग्ज्ञान का मार्ग दर्शाया, दिवंगत होने पर भी अमर हैं। कहा भी है: दिल्ली 'स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृत को वा न जायते ।। शत-शत प्रणाम । जैन धर्म के इतिहास में यति परम्परा में जो आचार की शिथिलता थी वह जैन धर्मावलंबियों को भली प्रकार विदित है । उसी परम्परा में दीक्षित हुए श्री रत्न विजयजी ने कीचड़ में कमल उत्पन्न होने वाले तथ्य का साक्षात्कार किया। तीव्रगति से अवरोहण करने वाली आत्माओं के लिए परम्पराएँ बहुत नीचे रह जाती है और वे अपने पुरुषार्थ के आधार पर 'स्व' पर के कल्याण उच्च भूमिका तक पहुँच जाती हैं। इसी प्रकार श्री रत्न विजयजी वैराग्य से वैभव को ठुकराते हुए अध्यात्म-साधना द्वारा श्री विजय राजेन्द्र सूरि बने । उन्होंने अपने जीवनकाल में न केवल अनेकों धर्म-स्थानों का उद्धार किया और जन-जन को धर्म का मार्ग दिखाया, बल्कि योग साधना में लीनता और अभय की भव्य भावना द्वारा जंगली पशुओं तक की प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त की। विक्रम संवत् १९६३ में अपने पार्थिव शरीर को अनशन द्वारा त्यागने के पूर्व अपनी विशाल विद्वत्ता का एक विशिष्ट प्रमाण 'अभिधान राजेन्द्र कोष, के रूप में प्रस्तुत कर गए; जिससे उनके नाम को अमरत्व प्राप्त हो गया । बी. नि. सं. २५०३ सात भागों में यह बृहद् ग्रंथ जैन आगमों के अध्ययन व जैन दर्शन के तत्त्वानुसंधान में अपूर्व योगदान सदियों तक करता रहेगा । Jain Education International -डॉ. वीणा जैन For Private & Personal Use Only - मोहनलाल कठोतिया २३ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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