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________________ जैन विद्वानों द्वारा हिन्दी में रचित कुछ वैद्यक ग्रन्थ आचार्य राजकुमार जैन भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से आयुर्वेद की परम्परा चली आ रही है । वर्तमान में आयुर्वेद के उपलब्ध ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैद्यक शास्त्र या आयुर्वेद का मूल स्रोत वैदिक वाङमय है। वेदो में आयुर्वेद सम्बन्धी पर्याप्त उद्धरण मिलते हैं । सर्वाधिक उद्धरण अथर्ववेद में मिलते हैं। इसीलिए आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना गया है। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता में प्राप्त वर्णन के आधार पर आयुर्वेद की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी द्वारा की गई। ब्रह्मा ने आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद का उपदेश दिया और अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का ज्ञान ग्रहण किया। इस प्रकार सुदीर्घ काल तक देवलोक में आयुर्वेद का प्रसार हुआ। तत्पश्चात् लोक में व्याधियों से पीड़ित आर्त प्राणियों को रोगमुक्त करने की दृष्टि से मुनिश्रेष्ट भारद्वाज देवलोक में गए और वहां इन्द्र से अष्टांग आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका प्रसार किया । उन्होंने कायचिकित्सा प्रधान आयुर्वेद का उपदेश पुनर्वसु आत्रेय को दिया, जिनसे अग्निवेश आदि छः शिष्यों ने विधिवत् आयुर्वेद का अध्ययन कर उसका ज्ञान प्राप्त किया और अपने अपने नाम से पृथक् पृथक् संहिताओं का निर्माण किया। इसी प्रकार दिवोदास धन्वन्तरि ने सुश्रुतप्रभृत्ति शिष्यों को शल्यतन्त्र प्रधान आयुर्वेद का उपदेश दिया। उन सभी शिष्यों ने भी अपने अपने नाम से पृथक् पृथक् संहिताओं का निर्माण किया । जिसमें से वर्तमान में केवल सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है। तत्पश्चात् अनेक आचार्यों, विद्वानों और भिषग् श्रेष्ठों द्वारा यह परम्परा विस्तार और प्रसार को प्राप्त कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हुई । जिस प्रकार वैदिक वाङमय और उससे संबंधित साहित्य में आयुर्वेद के बीज प्रकीर्ण रूप से विद्यमान हैं उसी प्रकार जैन वाङमय और इतर जैन साहित्य में पर्याप्त रूप में आयुर्वेद सम्बन्धी विभिन्न विषयों का उल्लेख मिलता है। इससे भी अधिक एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैन धर्म के द्वादशांगों के अन्तर्गत एक उपांग के रूप में स्वतन्त्र रूप से आयुर्वेद को विकास प्राप्त हुआ है। बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म की भांति जैन साहित्य और जैन धर्म से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है। जैन धर्म में आयुर्वेद का क्या महत्व है और उसकी कितनी उपयोगिता है ? इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाङमय में आयुर्वेद का समावेश द्वादशांग में किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङमय में अन्य शास्त्रों या विषयों की भांति आयुर्वेद शास्त्र या वैद्यक विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में वैद्यक (आयुर्वेद) विषय को भी आगम के अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। प्राचीन भारतीय वाङमय का अनुशीलन करने से ज्ञात होता है कि भारत में आयुर्वेद की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। समय समय पर विभिन्न जैनेत्तर विद्वानों द्वारा प्रचुर रूप से आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रंथों की रचना की गई है। वैद्य समाज उन ग्रंथों से भलीभांति परिचित है। किन्तु अनेक जैन विद्वानों ने भी आयुर्वेद सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है जिनमें दो चार को छोड़कर शेष सभी आयुर्वेद के ग्रंथों से वैद्य समाज अपरिचित है। इसका एक कारण यह भी है, उनमें से अधिकांश ग्रंथ आज भी अप्रकाशित ही पड़े हुए हैं। गत कुछ समय से शोध कार्य के रूप में राजस्थान के जैन मंदिरों में विद्यमान शास्त्र भंडारों का विशाल पैमाने पर अवलोकन किया गया और उनकी बृहदाकार सूची बनाई गई। यह सूची गत दिनों विशाल ग्रंथ के रूप में प्रकाशित की गई है। यह ग्रंथ चार भागों में विभक्त है। इस सूची ग्रंथ के चारों खंडों का अध्ययन करने से ज्ञात __ होता है कि इनमें अनेक ऐसे ग्रंथ विद्यमान हैं जो आयुर्वेद विषय पर आधारित हैं और जिनकी रचना जैनाचार्यों द्वारा की गई है। १७८ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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