SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पैठण, जिला-औरंगाबाद) में जैनाचार्यों के विहार के संबंध में कई कथाएँ उपलब्ध हैं। प्रभावक चरित्र प्रकरण ४ तथा विविध तीर्थ कल्प प्रकरण २३ के अनुसार आचार्य कालक ने इस नगर में राजा सातवाहन के आग्रह पर पर्युषण की तिथि भाद्रपद शुक्ल ५ से बदलकर चतुर्थी की थी क्योंकि राजा पंचमी के दिन होने वाले इन्द्रध्वज उत्सव तथा पर्युषण दोनों में उपस्थित होना चाहता था। प्रतिष्ठान से संबद्ध दूसरे आचार्य पालितिय (संस्कृत में पादलिप्त) की कथा के प्रकरण ५ तथा प्रबंध कोष प्रकरण ५ अधिक सुदृढ़ आधार उपलब्ध हैं । उद्योतन की कुवलय माला (पृ. ३) में हाल राजा की सभा में पालित्तिय की प्रतिष्ठा की प्रशंसा मिलती है। हाल द्वारा संपादित गाथा सप्तशती में प्राप्त एक गाथा (क्र. ७५) स्वयंभू छंद (पृ. १०३) में पालित्तिय के नाम से उद्धृत है। पालित्तिय की तरंगवती कथा महाराष्ट्री प्राकृत का प्रथम प्रबंध काव्य है। जैन साहित्य में अन्य प्रसिद्ध तीन कथाएँ सातवाहन काल से संबद्ध हैं। हेमचंद्र के परिशिष्ठ पर्व (प्रकरण १२-२३) के अनुसार आर्य समिति ने अचलपुर (जिला-अमरावती) के कई तापसों को जैन धर्म की दीक्षा दी थी। जो ब्रह्म दीपिका शाखा कहलाई। वैसे ही आचार्य वज्रसेन ने सापार नगर (बंबई के निकट) में नागेंद्र, चंद्र, निवृत्ति तथा विद्याधर को मुनि दीक्षा दी थी। इन्हीं के नाम से चार शाखाएँ प्रसिद्ध हुई। वाकाटक श्री मिराशी के कथनानुसार वाकाटकों का समय राज्य विस्तार के कारण नहीं किन्तु धर्म, विद्या और कला को दिये गये आश्रय के कारण संस्मरणीय है। सातवाहनों ने प्राकृत भाषा को समर्थन दिया तो वाकाटकों ने प्राकृत के साथ साथ संस्कृत भाषा को भी महत्व दिया । स्वयं वाकाटक शासक भी काव्य रचना करते थे। प्रवरसेन ने राम द्वारा सेतुबंध से रावण वध तक कथा पर 'सेतुबंध' नामक काव्य लिखा। सर्वसेन ने 'हरिविजय' लिखा। वाकाटक नृपति द्वारा रचित कुछ सुभाषितों का संग्रह 'गाथा सप्तशती' में है। वाकाटक काल में शिल्प, चित्र तथा स्थापत्य कला का परमोच्च विकास हुआ था। गुफाओं की खुदाई के, शास्त्र का प्रगल्भ विकास हुआ। भित्ति चित्रों की कला वाकाटकों के समय में अति उच्च शिखर पर जा पहुंची थी। अजन्ता की उत्कृष्ट समझी जाने वाली १६, १७ और १९ गुफाओं की खुदाई वाकाटक काल में ही हुई थी। गुफा क्र. १६ में सभी दीवारों पर बुद्ध पूर्व जन्मों के विविध प्रसंगों के चित्र आज भी दिखाई देते हैं। ऐसा निर्देशिता और हाव भाव पूर्णता अजंता के चित्रों का स्पष्ट वैशिष्ट्य है। ये चित्र रेखा प्रधान हैं। वाकाटक और गुप्त राजाओं के काल में चातुर्वर्ण्य को ले जातियां बनने लगी थीं। चांडालों को अस्पृश्य माना जाने लगा था । अस्पृश्यता का शाप इस काल खंड में लगा, जो गुप्त-वाकाटक काल में एक काला धब्बा था। दक्षिण में वाकाटक और उत्तर में गुप्तों का राज्य था। इस काल में भक्ति मार्ग को प्रोत्साहन मिला। वाकाटक के समय में शैव, वैष्णव और शाक्त पंथों का प्रसार होने लगा। आर्यों के मूलदेव पूर्ण रूप से कुछ पुराने और कुछ नये रूप में आगे आये । शक्ति देवी का माहात्म्य बढ़ा हुआ दिखाई देता है। लिंग पूजा का फिर से प्रचार होने लगा । अपने-अपने देवताओं का महत्व बढ़ाने के लिये उस देवता के भक्तों ने पुराणों की पुनर्रचना की। कुछ पुराणों की नये से रचना हुई। शिव, विष्णु, गणपति, सूर्य और शक्ति इन पांच देवताओं को गुप्त-वाकाटक काल में प्रमुखता प्राप्त हुई। जो आर्यअनार्यों के समन्वय की प्रतीक थी । इस समय आर्य-अनार्य की समस्या शेष नहीं रह गयी थी। वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीन धाराओं में प्रजा बँट गई थी। इस काल में बौद्ध और जैनियों में श्री भक्ति का प्रभाव बढ़ा और मूर्ति पूजा को अधिक प्रोत्साहन मिला। वैदिकों ने जैनियों को ऋषभदेव और बौद्धों के बुद्ध को अपने आराध्य देवताओं में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। इससे समन्वय को प्रोत्साहन मिला। वाकाटकों के बाद महाराष्ट्र में राष्ट्रकूटों की सत्ता प्रबल हुई। किन्तु महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा बादामी के चालुक्यों के आधीन था और चालुक्यों ने कुछ समय तक महाराष्ट्र पर राज्य किया। चालुक्य वंश चालुक्यों का राज्य छठी शताब्दी में वातापी (बादामी) में स्थापित हुआ था । चालुक्यों में सत्याश्रम, पुलकेशी, बड़ा पराक्रमी था। उसने महाराष्ट्र में मौर्य की समुद्र किनारे की जल सेना को पराभूत कर मौर्य साम्राज्य की महाराष्ट्र की बची खुची सत्ता को समाप्त किया। चालुक्यों के राज्य काल में चीनी यात्री हुवेन सांग आया था। जिसने महाराष्ट्र की यात्रा की। अजन्ता और एलोरा की गुफाएँ देखी। उसने महाराष्ट्र के विषय में लिखा-'इस प्रदेश की जमीन उपजाऊ है और इसमें खेती होती है। यहां की हवा उष्ण है। लोग साहसी, सुस्वभावी, प्रामाणिक हैं। उनका रहन सहन सादगीपूर्ण है। विद्या के चाहने वाले, उपकार कर्ताओं के प्रति कृतज्ञ, कोई सहायता या सहयोग चाहे तो आगे बढ़कर देने वाले किन्तु उनका कोई अपमान करे तो प्राणों की बाजी लगाकर बदला लेने वाले हैं। निःशस्त्र व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करते। जिस पर आक्रमण करना होगा, पूर्व सूचना देकर शस्त्र धारण करने को अवकाश देते हैं। भागने वाले शत्रु का पीछा करेंगे, किन्तु शरणागत को उदारतापूर्वक अभय देंगे।' पुलकेशी का पुत्र कीर्तिवर्मन राजा हुआ जिसने ई. ५६५ से ५९७ तक राज्य किया। उसने वनवासी कदम्बों, कोकण के मौर्यों नलों, गंगों और आलुओं को पराजित कर उनके प्रदेशों को जीता। यद्यपि पुलकेशी के राज्य काल में जैन धर्म काफी फला-फला किन्तु वह स्वयं वैदिक धर्मानुयायी था। उसने ई. ५६७ से जैन मंदिर में अभिषेक तथा अक्षत पुष्प, धूप, दीप आदि के द्वारा पूजन के लिए विपूल दान दिया था। उसी के राज्य में ई.५०५ में आचार्य रविकीर्ती ने एहोल के निकट पेगुत्ति में जिन मंदिर बनवाया था। विशाल जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी। कीर्तिवर्मन की मृत्यु के बाद उसके चाचा मंगलीश ने सिंहासन हस्तगत कर सन् ५९७ से ६०८ वी.नि.सं. २५०३ १६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy