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________________ लोकों में सुख और आनन्द प्राप्त कर सकें, किन्तु दूसरी धारा की शिक्षा यह है कि जीवन नाशवान है हम जो भी करें किन्तु हमें रोग और शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, न मृत्यु से ही हम भाग सकते हैं। हमारे आनन्द की स्थिति वह थी, जब हमने जन्म लिया था। जन्म के कारण ही वासना की जंजीर में पड़े हैं। अतएव, हमारा श्रेष्ठ धर्म यह है कि हम उन सुखों से पीठ फेर लें, जो हमें ललचा कर संसार में बांधते हैं। इस धारा के अनुसार मनुष्य को घर बार छोड़ कर संन्यास ले लेना चाहिए और देह-दंडन पूर्वक वह मार्ग पकड़ना चाहिए, जिससे आवागमन छूट जाए। दोनों संस्कृतियों के विचार में अपनी-अपनी विशेषता थी और उसमें जो तथ्य था उसे ग्रहण कर समन्वय द्वारा भारतीय संस्कृति ऐसी सशक्त बनी कि जो मानव जीवन को सही दिशा दर्शन में सक्षम हो। और अनेक आपदाओं के बीच वह अक्षुण्ण रह सके। स्व. विठ्ठलरामजी शिंदे ने भी भागवत धर्म के विकास में लिखा है कि भारत के विकास के इतिहास का प्रारम्भ वेद से माना जाता है, किन्तु वेद हिन्दू-संस्कृति का उद्गम नहीं है। वेद से पहले के अन्य लिखित प्रमाण न होने से ऐसा कहा जाता है किन्तु भारतीय संस्कृति वेदों से बहुत प्राचीन है । भारतीय आर्यों की संस्कृति के उद्गम स्रोत वेद हो सकते हैं। द्राविड़ 'ताम्रवर्णी' मोगल पीतवर्णी', शुद्ध 'कृष्णवर्णी', 'मिश्रवर्णी' इस प्रकार असंख्य मानववंश भारत में अनादि काल से बसते थे। उनके संस्कृति-महासागर में आर्य संस्कृति तेजस्वी किन्तु छोटी ही मिली है। यह बात विशेषज्ञ जान सकते हैं कि अखिल भारतीय संस्कृति का उद्गम वेद या आर्य संस्कृति मानना साहस ही होगा। उत्तरभारत की तरह दक्षिण में भी आर्यों के आगमन के पहले जो जातियां बसती थीं उनकी संस्कृति के विषय में विद्वानों ने शोधन करके जो तथ्य प्रकट किए उसमें आर्यों के आगमन के पहले महाराष्ट्र में भागवत धर्म या श्रमण धर्म प्रचलित था । और आर्यों के आगमन के बाद उसमें आर्यों ने समझौता कर अपना लिया हो ऐसा लगता है क्योंकि आम जनता उन्हीं विचारों-आचारों से प्रभावित थी। आर्यों ने भागवत धर्म के देवताओं को अपनी उपासना में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। ___ महाराष्ट्र में आर्यों के आगमन के पहले जो भागवत धर्म प्रचलित था उसके रूप के विषय में स्व. विठ्ठलरामजी शिंदे की मान्यता है • कि, "किसी भगवान या देव, देवी या पूज्य पुरुष को भगवान के रूप में भक्ति करने वाले वे भागवत और उनका धर्म भागवत धर्म । इस दृष्टि से वे शिव, विष्णु, जैन और बौद्धों की गणना भी भागवतों में ही करते हैं। इस दृष्टि से शंकर, ऋषभ, कृष्ण उनकी दृष्टि से प्रारम्भ में वैदिकों के देव या पूज्य पुरुष नहीं थे जिन्हें वैदिकों ने बाद में अपना लिया । शिव भागवत सम्प्रदाय उनकी दृष्टि से जैनों से पूर्व का होना चाहिए। पर कुछ विद्वानों का यह भी मत विचारणीय है कि शंकर और ऋषभदेव एक हैं। क्योंकि दोनों का प्रतीक बैल (वृषभ) रहा है। दोनों को आदिनाथ कहा जाता था और दोनों की साधना में योग प्रमुख था। वे दोनों एक हों या भिन्न पर दोनों निवृत्ति प्रधान थे और साधना में योग, चित्तशुद्धि और संयम को प्रधानता देते थे। वे अध्यात्म, साधना, सादगी, संयम, कर्म सिद्धान्त और पुनर्जन्म को मानने वाले थे और पशु-यज्ञ के विरोधी थे। इसलिए प्रागैतिहासिक काल में महाराष्ट्र निवासियों की जो संस्कृति थी उसको और जनों के विचारों में काफी साम्य था । जैन अनुश्रुतियों के अनुसार दक्षिण की द्राविड़, नाग, राक्षस, वानर तथा विद्याधर इन जातियों में जैन धर्म का प्रचार था। भले ही ऐतिहासिक प्रमाण द ना आसान न हो तो भी उनमें काफी विचार साम्य था। ऐसा दिखाई देता है। __सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन की मान्यता है कि, "जैन अनुश्रुति के अनुसार मानव-सभ्यता के प्रारम्भ से इस प्रदेश में सभ्य विद्याधरों की नाग, अक्ष, यज्ञ, वानर आदि जातियों का निवास रहा है । ये जातियां श्रमण संस्कृति की उपासक थीं। ब्राह्मण अनुश्रुति के अनुसार आगस्त्य पहले आर्य ऋषि थे जो विन्ध्याचल को पार कर दक्षिण भारत में पहुंचे थे, परशुराम भी वहां गये थे। वनवास में रामचन्द्र भी वहां गये थे और वानरों की सहायता से लंका के राक्षस राजा रावण का अंत करने में सफल हए थे। इससे प्रतीत होता है कि रामायण काल के लगभग वैदिक आर्यों के एकदो छोटे उपनिवेश दक्षिण पंथ में स्थापित हो गये थे, किन्तु इसमें ईसवी सन् के प्रारम्भ तक कोई विशेष प्रगति नहीं हो पाई थी और दक्षिण पंथ अधिकांशतः अवैदिक एवं अनार्य ही बना रहा । दूसरी ओर जैन अनुश्रुति के अनुसार रामायण काल के भी बहुत पूर्व से मध्य प्रदेश के मानवों और दक्षिण पथ के विद्याधरों में अबाध संपर्क रहा था। तीर्थंकर ऋषभदेव ने विजयाध के दक्षिण स्थित, नमि, विनमि आदि विद्याधर नरेशों के साथ विवाह एवं मैत्री संबंध भी किए थे। और उत्तरी पथ के साथ-साथ यहां भी जैन धर्म का प्रचार किया था। भरत चक्रवर्ती ने अपनी दिग्विजय में दक्षिण के समस्त देशों को विजय किया था। उनके छोटे भाई बाहुबली को ऋष भदेव द्वारा पोदनपुर का राज्य दिया था जो दक्षिण में स्थित था । बाहुबली की विशाल मूर्तियों का निर्माण तथा उपासना दक्षिण भारत में ही अधिक हुआ है। रामायण काल में अयोध्या के सूर्यवंशी दशरथ, राम, लक्ष्मण आदि दक्षिण पंथ के पवनंजय, हनुमान, बाली, सुग्रीव, नल-नील आदि वानर वंशी विद्याधर तथा लंका के राक्षसवंशी रावण, मेघनाद आदि सब जैन धर्म के उपासक बताए गए हैं । विद्याधर वैज्ञानिक आविष्कारों, लौकिक विद्या एवं कलाओं, धन तथा भौतिक शक्ति में उत्तरापथ वालों से बढ़े-चढ़े थे। किंतु आध्यात्मिक उन्नति धर्म, दर्शन और चिन्तन में उन्होंने मानवों के गुरु तीर्थंकरों के समक्ष अपना मस्तक झुकाया था। और उनके शिष्य तथा उपासक बने । विद्याधरों के वंशजों को आधुनिक इतिहासकार द्राविड़ कहते हैं। द्राविड़ लोगों को अनार्य और अवैदिक ही नहीं भारत के प्रागार्य और प्राग्वैदिक निवासी मानते हैं। इस बात की संभावना को स्वीकार करते हैं कि द्राविड़ जाति ब्राह्मण परम्परा के शैव, वैष्णव आदि धर्म अपनाने के पहले जैन धर्मानुयायी थीं । महाभारतकाल में तीर्थकर अरिष्टनेमि ने दक्षिण पथ में स्वधर्म का प्रचार किया था और उनके भक्त कुरुवंशी पंच पांडव राज्य परित्याग कर दक्षिण की ओर चले गए थे। उन्होंने जैन मुनियों के रूप में कठोर तपस्या की थी। वी. नि. सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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