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________________ उनके स्वरूप का वर्णन उन्हीं आचार्य के त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित में उपलब्ध होता है। दिगम्बरों में वसुनन्दि, आशाधर आदि विद्वानों ने यक्ष-यक्षियों के स्वरूप वर्णन प्रस्तुत किए हैं । दिगम्बर परम्परा की यक्षी प्रतिमाएं देवगढ़ और खण्डगिरि में पूर्ण समूह में प्राप्त हुई हैं । पतियानदाई के नाम से ज्ञात एक अम्बिका प्रतिमा के तीन ओर की पट्टियों में भी अन्य तेईस यक्षियों की छोटी छोटी प्रतिमाएं उकेरी हुई हैं जिनके नाम भी वहीं उत्कीर्ण हैं। आश्चर्य की बात है कि एक ही सम्प्रदाय की होने के बावजूद भी देवगढ़, खण्डगिरि और पतियानदाई की यक्षिणियों के नाम भिन्न-भिन्न हैं । हरिवंशपुराण में तीर्थंकरों संबंधी समस्त जानकारी का विस्तृत विवरण होने पर भी वहां ( सर्ग ६० ) शासन देवताओं का विवरण नहीं दिया गया है। उसी पुराण के ६६ वें सर्ग के ४३ वें श्लोक में एक बार शासन देवता शब्द का प्रयोग मिलता है और आगे ४४ वें श्लोक में अप्रतिचका देवता का तथा ऊर्जयन्त (पर्वत) में निवास करने वाली सिपाहीदेवी का उल्लेख मिलता है, किन्तु उस सिंहवाहनी देवी की अम्बिकादेवी या आम्रादेवी नहीं कहा गया है आदि पुराण से ज्ञात होता है कि गरुड़वानी और सिवानी ये दो विद्याएं थीं। संभवतः इन्हीं दोनों ने आगे चलकर अप्रतिचक्रा या चक्रेश्वरी और अम्बिका या आम्रादेवी के रूप प्राप्त कर लिए हों । अम्बिका देवी की प्रतिमाएं पर्याप्त प्राचीन काल से ही निर्मित होने लगी थीं। प्रारंभ में प्रायः सभी तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के साथ अम्बिकादेवी की ही प्रतिमा बनाई जाती थी। अकोटा से प्राप्त हुई अम्बिकादेवी की प्रतिमा को ५५० ईसवीं के लगभग का माना जाता है । 1 श्रुतदेवता, विद्यादेवता और शासन देवता पद्मपुराण (१२३ । १८३ ) में समय देवता का उल्लेख मिलता है । हरिवंशपुराण (१।२५) का उल्लेख किया गया है। हरिवंशपुराण ( ५/३६३) में यह भी उल्लेख मिलता है कि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के समीप चामर लिये हुए नागकुमार और यक्षों के युगल खड़े बनाये जाते थे तथा समस्त जिन प्रतिमाएं सनत्कुमार और सर्वाहण यक्ष तथा निवृत्ति और श्रुति नामक देवियों की मूर्तियों से युक्त हुआ करती थी। जैन परम्परा में श्रुतदेवी या सरस्वती की पूजा बहुत प्राचीन काल से होती रही है। मथुरा में जैन सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त हुई है जो दूसरी शताब्दी की है। सिहरि के लोक विभाग नामक ग्रन्थ में ( १।३७ ) कहा गया है कि प्रत्येक जिनबिम्ब के दोनों पार्श्वभागों में सनत्कुमार और सर्वाहण यक्षों तथा श्रीदेवी और देवी बी. नि. सं. २५०३ प्रतिबिम्ब होते हैं । सिंहसूर का ग्रन्थ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में रचा गया था किन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया है उनका ग्रन्थ सर्वनन्दी मुनि के उस ग्रन्थ का भाषान्तर है जो शक संवत् ३८० में रचा गया था। Jain Education International हरिवंशपुराण में श्रुतदेवी की मूर्तियों का उल्लेख मिलता है । पद्मपुराण में "समय" देवता का उल्लेख मिलता है यह ऊपर कहा जा चुका है। "समय" शब्द का अर्थ शास्त्र या ज्ञान भी होता है। इसलिये समय देवता का संबंध श्रुतदेवता से जुड़ना स्वाभाविक है और समय को शासन काल से संबंधित कर 'समय देवता' का 'शासन देवता' के रूप में प्रचलन भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता । पश्चात्कालीन जैन ग्रन्थों में विद्यादेवियों की लम्बी सूची मिलती है । कोई आश्चर्य नहीं कि ये विद्यादेवियां या समय देवता ही यथाक्रम से शासन देवियां हो गई हों। दिगम्बर ग्रन्थों में जो शासन यक्षियों की सूची मिलती है उनमें विद्या देवियों के नाम ज्यों के त्यों मिलते हैं । विद्यादेवियों के संबंध में हरिवंशपुराण में उल्लेख मिलता है । भगवान ऋषभदेव के महाव्रती बन चुकने के पश्चात् नमि और विनमि उनसे धन संपत्ति प्राप्त करने के लिए उन्हें परेशान कर रहे थे। तब धरण ने दिती और अदिति नामक अपनी देवियों के साथ वहां पहुंच कर नमि और विनमि को अपनी देवियों से विद्या का भण्डार दिला दिया था नमि और विनमि ने विद्याओं के आठ आठ निकाय प्राप्त किये । उन सोलह निकायों की विद्याओं की सूची हरिवंशपुराण में दी गई है। उनमें प्रज्ञप्ति, रोहिणी गौरी, महागौरी, कूष्मांनी अजिता काली भद्रकाली आदि है। इसी सूची में आर्यवती और निवृत्ति का नाम भी है कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मथुरा से प्राप्त आर्यवती प्रतिमा भी विद्यादेवी की प्रतिमा हो । , " " क्षमा अमृत है, क्रोध विष है; क्षमा मानवता का अतीव विकास करती है और क्रोध उसका सर्वथा नाश कर देता है। कोधावेशी में दुराचारिता, दुष्टता, अनुदारता, परपीड़कता इत्यादि दुर्गुण निवास करते हैं और वह । अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि जैन परम्परा में शासन देवियों का आगमन विद्यादेवियों के माध्यम से हुआ । सारी जिन्दगी चिन्ता, शोक एवं सन्ताप में घिर कर व्यतीत करता है, क्षण-भर भी शान्ति से साँस लेने का समय उसे नहीं मिलता; इसलिए क्रोध को छोड़कर क्षमा को अपवा लेना चाहिये । -राजेन्द्र रि For Private & Personal Use Only १६३ www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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