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________________ कुर्वाणोपि क्रियां ज्ञाति धन भोगांस्त्यजन्नपि । दुःखस्यो ददानोपि नांधा जयति वैरिणम् ||२|| ( सब क्रियाएं करता हो, जाति, धन और भोग का त्याग करता हो, परन्तु जैसे अंधा व्यक्ति शत्रु को जीत नहीं सकता, उसी प्रकार सम्यक्त्व के अभाव में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ) । कुर्वन्निर्वृत्ति मप्येवं कामभोगोस्त्य जन्नपि । दुखः स्पोरोददानोपि मिध्यादृष्टिर्न सिध्यति ॥४॥ (संतोष धारण किया हो, कामभोग का त्याग किया हो और दुःख को सहन करता हो, परन्तु अगर मिध्यादृष्टि हो तो सिद्धि प्राप्त नहीं होती। कनी निकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यत्वामुच्यते सारः सर्वेषा धर्मकर्मणाम् ||५|| (नेत्र का सार उसकी कड़ी, पुष्प का सार जैसे सुगन्ध, ऐसे ही सब धर्मों का सार सम्यक्त्व है ) । तत्वश्रद्धान मेतच्च गदितं जिन शासने । सर्वे जीवा न हंतव्या सूत्रे तत्व मितीष्यते ॥ ६ ॥ (तत्व में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है, ऐसा जिनशासन में कहा है । सब जीवों की हिंसा नहीं करना, यह तत्व है, ऐसा सूत्र में कहा है ।) सभ्य दर्शन को किसी नदी, समुद्र, देवी-देवता, पर्वत, चाद सूरज आदि की धारणा विशेष के साथ बांध देना जैन दर्शन की मूल प्रक्रिया से हट जाना है। जड़ सत्ता पर विश्वास करना सम्यग्दर्शन नहीं है, बल्कि चैतन्य शक्ति पर विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन है । "नादंसणिस्स नाणं" -उत्त० २८-३० सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की साधना का महल, शंकाओं, अंधविश्वासों आदि के जरासे अंधड़ से दह जावेगा 1 ब्रह्मसमाज के विख्यात तत्ववेत्ता केशवचन्द्र ने एक बार श्री रामकृष्ण से पूछा- "लोग चाहे जितने उच्च कोटि के विद्वान क्यों न हों, फिर भी वे मायाजाल में फंसे ही रहते हैं ।" इसक। कारण क्या है ? श्री रामकृष्ण ने उपमा देते हुए समझाया -- "चीलें आकाश में बहुत ऊंचाई तक शुद्ध वायुमंडल में उड़ती रहती हैं, लेकिन उनकी नजर नीचे पड़े हुए मृत प्राणी के मांस और हड्डी पर रहती है। इसी तरह चाहे हम कितनी ही ऊंची किताबें पढ़ लें, लेकिन जब तक हमारी नजर साफ और सही नहीं होगी, तब तक हम काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि के मायाजाल में फंसे रहेंगे । कोरी विद्या पढ़ने से सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं होता, उसके लिए सम्यग्दृष्टि चाहिए । सम्यग्दृष्टि का आचार पाप प्रधान नहीं होता । आचारांग सूत्र में कहा है -- "समत्तदंसी न करेइ पावं ।" सम्यग्दर्शन के दिव्य आलोक में बाह्य दुःखों के बीच भी आंतरिक सुखों का अजय खोत फूटेगा। सम्यदृष्टि आत्मा प्रतिकूलता में भी अनु १५४ Jain Education International कूलता का अनुभव करता है और मिध्यादृष्टि आत्मा अनुकूलता में भी प्रतिकूलता का अनुभव करता है। सम्यक्त्व धर्म के प्रभाव से नीच से नीच पुरुष भी देव हो जाता है और उसके अभाव में उच्च से उच्च भी अधम हो जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक में कहा है- सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपिमातंग देहनम् । देवा देवं विदुर्भस्म गूढ़ागारान्त रौजसम् ।। ( चांडाल के शरीर से पैदा हुआ व्यक्ति भी सम्यग्दर्शन सम्पन्न हो तो देवता उसे राख में छिपे हुए अंदर से तेजस्वी अंगारों की तरह देव कहते हैं)। भारतीय दर्शन का कथन है कि- "जब तक मर्त्य और अमृत अंशों को ठीक से नहीं समझा जायगा एवं उसका सम्यक् विकास नहीं किया जावेगा, तब तक मनुष्य अपूर्ण ही रहेगा। अध्यात्मवादी मनुष्य शरीर की सत्ता से इन्कार नहीं करता, उसको विवेकदृष्टि शरीर के अन्दर स्थित दिव्य अंश का भी साक्षात्कार करती है । आत्मवादी के जीवन में भोग-विलास आदि का भी अस्तित्व रहता है, किन्तु इनकी प्राप्ति एवं उपभोग ही उसके जीवन का साध्य नहीं बनता, भोग से योग की ओर अग्रसर होने में ही उसकी सफलता है। वह सदा अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का विश्वास लेकर चलता है -- "आरोह तमसो ज्योति" । श्रमण साहित्य के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में भी सम्यग्दर्शन की महिमा कम नहीं है। वहां ऋत, सत्य, समत्व आदि शब्दों से इसी ओर इंगित किया गया है। सम्यग्दर्शन शब्द प्रयुक्त हुआ है, परन्तु बहुत ही कम । गीता में कहा है--"समत्वं योग उच्यते"समत्व सबसे बड़ा योग है। महर्षि मनु ने लिखा है- सम्यग्दर्शन संपन्न कर्मभिर्न निबध्यते दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते । — मनुसंहिता (सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति कर्मवद्ध नहीं होता, संसार में परि भ्रमण वही करता है जो सम्यग्दर्शन विहीन होता है)। सम्यक्त्वी साधक उपशम से क्रोध को, विनय से मान को, सरलता से माया को, संतोष से लोभ को, समभाव से ईर्ष्या को, प्रेम से घृणा को जीतने का अभ्यास करता है । इन पर विजय पाना ही सम्यक्त्व की प्राथमिक साधना है । सम्यक्त्वी भाषा, प्रदेश, जाति, धर्म, अर्थ, शास्त्र, पंथ आदि किसी भी क्षेत्र में आवेश, आग्रह या पक्षपात के वशीभूत नहीं होता है। अध्यात्मवादी व्यक्ति का जीवन ऊर्ध्वमुखी होता है और भोगवादी व्यक्ति का जीवन अधोमुखी होता है। अपामार्ग एक औषधि होती है, उसे बधा-कोटा भी कहते हैं। उसमें कांटे भरे रहते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ से उसको पकड़ कर अपने हाथ को उसके नीचे की ओर ले जाय तो उसका हाथ कांटों से छिलता चला जाएगा, उसका हाथ लहुलुहान हो जायगा और यदि उस टहनी को पकड़ कर अपने हाथ को नीचे से ऊपर की ओर ले जाय तो उसके हाथ में एक भी कांटा नहीं लगेगा। यह जीवन का एक मर्म भरा रहस्य है । सम्यग्दृष्टि राजेन्द्र-क्योति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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