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________________ साधना और सम्यग्दर्शन मुनि अजितकुमार 'निर्मल' साधना का अर्थ लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति एवं प्रयास को 'साधना' कहते हैं । साधना में लक्ष्य का बड़ा महत्व है। वैसे तो हम सभी संसारी प्राणी किसी न किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति रत रहते हैं और इससे प्राप्त फल का उपयोग भी करते हैं । लेकिन उसके बाद पुन: नए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाते हैं । इसलिए इस प्रवृत्ति को साधना न कह कर अपनी नियति मान लें, तो अधिक युक्तिसंगत होगा । क्षणिक फलों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों को यदि साधना का रूप देते हैं या उसे साधना कहते हैं तो यह हमारी क्षुद्र बुद्धि का ही प्रमाण माना जाएगा । क्योंकि यह जीवन सांसारिक योगचक्र में उलझे रहने के लिए नहीं हुआ है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं और जैसे हैं वैसा रहना ही हमारा उद्देश्य नहीं है । हमारे जीवन का लक्ष्य तो यह है कि हम अणु से महान बनें, वामन से विराट बनें और ससीम से असीम बनें, बंधन से मुक्त हों। इससे बढ़ कर और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं हो सकता है। प्रत्येक जीवन की यही आकांक्षा है। इसलिये साधना वही कहलाएगी जिसका लक्ष्य अन्यतम हो । अर्थात् अन्यतम लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति को साधना कहते हैं । लक्ष्य प्राप्ति का अधिकारी ___ अन्यतम लक्ष्य प्राप्त करने का अधिकारी कौन होता है ? क्योंकि हमारी वार्तमानिक स्थिति संयोगज है । हम चेतन जीव आत्मा होकर भी शरीर इन्द्रियों आदि के साथ जुड़े हुए हैं । यह शरीर भौतिक है। हम भौतिक शरीर को हम कितना भी शक्तिमान माने, लम्बा चौड़ा समझ लें । लेकिन शरीर की सत्ता तभी तक है जब तक इसमें प्राणशक्ति का संचार है। उदयगति अपनी धुरी पर घूमती है। प्राणशक्ति एवं हृदयगति का खेल भी तभी तक है जब तक शरीर में चैतन्य आत्मा शिवशंकर विराजमान है । लेकिन चैतन्य शिवशंकर के निकल जाने पर तो यह शरीर शव और कंकर मात्र ही रह जाता है । कथन का फलितार्थ यह हुवा है कि जीवन में इस शरीर का नहीं, आत्मा का महत्व है आत्मा ही इस सृष्टि का सिरमोर तत्व है। विश्व की प्रत्येक रमणीयता का वही सूत्रधार है। इसीलिए आत्मा के द्वारा ही अन्यतम लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। विकट प्रश्न आत्मा के द्वारा अन्यतम लक्ष्य प्राप्तव्य होने पर भी अभी तक हमें अनुकूल फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ है ? यद्यपि अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे काम, क्रोध आदि विकारों, विकल्पों को जीतने के अनेक बार प्रयत्न किए गए फिर भी सफलता क्यों नहीं मिली ? हमारी मोहमुग्ध आत्मा संसार सागर की उत्ताल तरंगों पर उठती और गिरती रही है । कभी उसका किनारा दिखा भी है लेकिन पुनः उसी में डूब गई । इस प्रकार अनेक बार निकलने के लिए किए जाने वाले प्रयास कार्यकारी क्यों नहीं हुए? क्या कारण है कि अभी तक यह आत्मा निकल भी नहीं पाई ? यह एक विकट प्रश्न है । इस प्रश्न पर मनुष्येतर प्राणियों ने विचार किया या नहीं किया है ? इस बात को गौण करके यदि हम मानव अपने आप को देखें तो ज्ञात होगा कि भौतिकता के वशीभूत होकर हमने अपनी बौद्धिक क्षमता का भरपूर उपयोग किया। प्रकृति पर विजय प्राप्त करने में उसके एक-एक गूढ़ रहस्य खोज निकालने में भौतिकवादी विकास द्वारा अनन्त आकाश में उड़ने के लिए वायुयान बनाये । समुद्र की अपार जलराशि में तैरने के लिए जलयान बनाये तथा अन्यान्य सुख साधनों के आविष्कार किये । इस निर्माणकारी प्रक्रिया के साथ ऐसे संहारक शस्त्रों का सृजन किया जो क्षणमात्र में इस रमणीय विश्व में विनाश का ताण्डव नृत्य दिखा सकते हैं लेकिन हमने यह जानने, समझने, परखने का प्रयास नहीं किया है कि मैं कौन हूं और क्या हूं? जीवन में उत्थान कैसे आता है और पतन क्योंकर होता है ? काम, क्रोध माया, लोभ आदि विकार विकल्प मेरे हैं या मुझसे भिन्न हैं ? इन विकारों का प्रकोप होने पर हम शांत, विनम्र, सरल क्यों नहीं बन सके? वी.नि. सं. २५०३ १४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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