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________________ मिलता है कि रत्नप्रभुसूरि ने वीर निर्वाण संवत् ७० में ओसवंश की स्थापना की। इससे पहले के किसी भी ग्रंथ में यह संवत् नहीं मिलता है । जितने भी शिलालेख और प्रशस्तियाँ आदि प्राप्त हुई हैं उनमें जो ओसवाल वंश की पूर्वज-परम्परा दी है उनकी पहुंच भी आठवीं शताब्दी से आगे नहीं जाती। इसलिये स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर आदि ने ओसवाल जाति की स्थापना ९-१०वीं शताब्दी से होना माना है । मुनि ज्ञानसुन्दरजी (देव गुप्त सूरि) ने उपकेश वंश पट्टावली आदि का समर्थन करते हुए जिन प्रमाणों को प्राचीन बतलाया है उन सबकी परीक्षा में अपने ओसवाल नवयुवक पत्र में प्रकाशित विस्तृत लेख में भली-भाँति कर चुका हूँ । अभी तक कोई ऐसा प्राचीन प्रमाण नहीं मिला है जिससे आठवीं शताब्दी से पहले ओसवाल जाति की स्थापना हुई हो, यह सिद्ध हो सके। अतः मेरी राय में यह समय आठवीं-नवीं शताब्दी का होना चाहिये । उपकेश-पट्टावली में जो अन्तिम रत्नप्रभु सूरि नाम वाले आचार्य हुए हैं वे ही ओसवंश के संस्थापक हो सकते हैं। ओसवाल जाति की स्थापना के सम्बन्ध में दूसरी परम्परा भाट आदि की है। उनके अनुसार बी. ए. आई. में ओसवंश स्थापित हुआ पर एक तो यह संवत् की गोलमोल है, दूसरी इसकी पुष्टि का कोई प्राचीन प्रमाण उपलब्ध नहीं है । भाटों के पास भी प्राचीन बहियाँ मांगी गई तो वे दिखा नहीं सके । कुल-गरुओं, महात्माओं, मथेरणों आदि के पास जो भी वंशावलियाँ देखी गई, उनमें १६ वीं शताब्दी से पहले की लिखी हुई कोई नहीं मिली। सोलहवीं शताब्दी में श्रीमाल जाति की एक वंशावली श्री आत्मानन्द जैन शताब्दी ग्रन्थ में अंकित हुई है इसी तरह की कपड़े की दो वंशावलियाँ हमारे संग्रह में हैं। ओसवाल जाति के मूल गोत्र १८ थे जो बढ़ते-बढ़ते १४४४ तक पहुँच गये । समय-समय पर ओसवाल जाति में जैनाचार्य के बनाये हये नये जैनी सम्मिलित होते गये। स्थानों, विशिष्ट व्यक्तियों और कार्यों के आधार से नये-नये गोत्र के नाम प्रसिद्धि में आते गये । इससे ओसवाल गोत्रों की सूची जैन सम्प्रदाय शिक्षा ओसवाल रास आदि में प्रकाशित हुई है, ७०० तक की संख्या है। किस-किस गोत्र को किस-किस आचार्य ने कब और कैसे प्रतिबोध किया इस संबंध में जो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं वे १७वीं शताब्दी के पहले नहीं मिलती हैं और अलग-अलग गच्छों में गोत्र स्थापना सम्बन्धी विवरण अलग-अलग रूप में मिलता है। मध्यकाल में गच्छों में काफी खींचतान रही है। और प्रत्येकः गच्छ वाले हमारे आचार्य ने अमुक गोत्र को प्रतिबोध दिया, इस तरह के विवरण को अपने दफ्तर-बहियों और फुटकर पत्रों में भी लिख रखा है परस्पर विरोधी होने से इस सम्बन्ध में निर्णय तक पहुंचना कठिन हो जाता है। श्रुति-परम्परा और किंवदन्तियों के आधार पर महाजन-वंश मुक्तावली बीकानेर के प्रसिद्ध वेद और बहुश्रुत यति रामलालजो ने लिखी । इसी तरह यति श्रीपालजी ने जैन सम्प्रदाय शिक्षा नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में प्रकरण लिखा है । इधर मुनि ज्ञान सन्दरजी ने महाजन वंश महोदय और पार्थनाथ परम्परा का इतिहास आदि ग्रन्थों में तथा जामनगर के पंडित हंसराज द्वारा प्रकाशित जैन गोत्र संग्रह, एक अन्य ग्रन्थ श्रीमाल जातियों में जातिभेद और ओसवाल जाति के इतिहास नामक वृहद ग्रंथ में यथाज्ञात विवरण प्रकाशित हुआ है। मैंने भी कुछ लेख लिखे हैं पर सन्तोषप्रद प्राचीन और सामाजिक साधनों के अभाव में ओसवाल जाति का इतिहास अभी तक लिखा नहीं जा सका। अतः जो ग्रन्थ प्रकाशित हुवे हैं उन्हीं से सन्तोष करना पड़ता है । समय-समय पर इस जाति में अनेक वीर, बुद्धिमान, दानवीर धर्मनिष्ट और प्रभावशाली सम्पन्न व्यक्ति हुए। और आज भी अच्छे प्रमाण में हैं, पर अब लोगों में जातीय गौरव का ह्रास । हो चुका है । जो साधन हैं वे भी दिनोदिन नष्ट होते जा रहे हैं । जाति हितैषी व्यक्तियों को इस ओर तुरन्त ध्यान देना चाहिये। ओसवाल जाति के लोगों ने अपने इतिहास को सुरक्षित और दीर्घजीवी रखने का प्रयत्न अवश्य किया । इसलिये कुलगरुओं, महात्माओं, भाटों आदि को प्रोत्साहन दिया । अपने इतिहास के लेखन और संरक्षण के लिये ही लाखों रुपये खर्च किये पर इसका जैसा परिणाम मिलना चाहिये था वैसा नहीं मिला । ऐतिहासिक विवरण लिखने वालों ने इस कार्य को अपना पेशा बना लिया और अपनी वंशावलियों और बहियों को छिपाकर रखने लगे । भाटों ने तो अपनी सांकेतिक लिपि में बहियाँ लिखनी आरम्भ कर दी। जिससे उन्हें कोई दूसरा पढ़ या समझ नहीं सकता । प्राचीन बहियों एवं वंशावलियों को सुरक्षित रखने में भी वे उदासीन बन गये। नई बहियों में अपने ढंग से संक्षिप्त और काम चलाये जाने लायक विवरण लिखकर अपनी आजीविका चलाते रहे । उनके यहाँ आज भी खोज करने पर कुछ बची-खुची उपयोगी सामग्री मिल सकती है। पर इस जरूरी और महत्वपूर्ण कार्य के लिये कोई अपना समय, श्रम एवं अर्थ व्यय करना नहीं चाहता। अनेक ग्राम, नगरों में कई गच्छों के महात्मा, मथेरन आदि मिल सकते हैं-जिनके पास पुरानी वंशावलियाँ आदि भी कुछ एक सामग्री बची हुई है। पर इधर वे कोड़ियों में मोल बिकती जा रही हैं। क्योंकि अब उनकी कोई उपयोगिता (अर्थोपार्जन आदि की) नहीं रही । भाटों आदि की अब कोई पूछ व मान-सम्मान न रहा। अतः वे भी दूसरे कार्य-धंधों में लगते जा रहे हैं। इस तरह हमारे पूर्वजों ने जो जातीय इतिहास की सुरक्षा के लिये प्रबन्ध किया था, वह अब बेकार-सा हो गया है। बड़े-बड़े लोगों में जो कुछ जातीय गौरव के संस्कार थे, वे भी भावी पीढ़ी में समाप्त होते जा रहे हैं। इस तरह इतिहास के प्रति उपेक्षा बढ़ती जा रही हैं । अब पुरानी बातें पोथी के बेगन जैसी हो रही हैं । प्राचीन चीजों और ग्रन्थों की खोज को लोग अब मुर्दो को कब से खोदकर निकालने जैसा व्यर्थ प्रयास मानने लगे । कुछ वर्षों पहले तक जो वर्तमान इतिहास के संग्रह १४४ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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