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________________ १० वी शती ई. में निर्मित हुई इस मति में अम्बिका को एक आमों से लदे वृक्ष के नीचे द्विभंग मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। इनके दाहिने हाथ में एक आम्रलुम्बि है और बांए हाथ से वह एक नन्हें बालक को पकड़े हुए है । इनके दाहिनी ओर भी एक बालक अपने दाहिने हाथ में कुछ लिए खड़ा हुआ है। श्री पुराण में अम्बिका के इन दो पुत्रों के नाम सुभेकर तथा प्रेभंकर मिलते हैं । देवी ने सुन्दर मुकुट, हार, कंगन व साड़ी पहिन रखी है। आम्र वृक्ष के ऊपर तीन तीर्थंकरों की ध्यानस्थ मूर्तियां हैं। देवी का वाहन सिंह सामने बैठा दिखाया गया है। यह मूर्ति प्रस्तर कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। उत्तर प्रदेश में झांसी जिले के देवगढ़ नामक स्थान से प्राप्त अम्बिका की एक पाषाण प्रतिमा एवरी बन्डेज संग्रह में भी देखी जा सकती है । त्रिभंग मुद्रा में खड़ी इस मूर्ति में उनके दोनों दाहिने हाथ खण्डित हैं परन्तु पैरों के समीप बने आमों के गुच्छे से प्रतीत होता है कि वह दाहिने निचले हाथ में आम्र लुम्बि पकड़े थी। ऊपर का बांया हाथ भी खण्डित अस्पष्ट पदार्थ पकड़े है और साथ वाले निचले हाथ में वह एक बालक को सम्हाले हुए है । इस मूर्ति में भी आम्रवृक्ष के ऊपर तीन तीर्थंकर ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त इनके दोनों ओर भी एक-एक शीर्ष रहित तीर्थकर की ध्यान मुद्रा में मूर्ति बनी है। इनके पैरों के पास एक-एक सेविका पूर्ण घट लिए दोनो ओर खड़ी हैं। दाहिने पैर के पास इनका द्वितीय पुत्र खड़ा है व बाए पैर के पास इनका वाहन सिंह बैठा हुआ है। देवी ने सुन्दर मुकुट, कोकुर, कुण्डल, हार, माला, साड़ी व पादजालक आदि धारण कर रखे हैं। प्रस्तुत मूर्ति चन्देल कला की ११ वीं शती ई. का उत्कृष्ट उदाहरण है। पाषाण प्रतिमाओं के अतिरिक्त अम्बिका की दो कांस्य मूर्तियां भी अमेरीका के संग्रहों में सुरक्षित हैं। इनकी प्रथम मूर्ति जो मैसूर, में १० वी ११ वी सदी ई. में बनी लगती है एक पद्म पीठ पर दिवभंग मुद्रा में खड़ी है। इनके भी दाहिने हाथ में एक आम्र-लुम्बि है व बांया हाथ अपने पुत्र के शीर्ष के ऊपर रखा है। इनका द्वितीय पुत्र दाहिनी ओर खड़े एक सिंह पर सवार दिखाया गया है। देवी के शीर्ष के ऊपर आम का वृक्ष है, जिस पर बहुत से आम लटकते हुए दिखाए गए हैं। और उसी के ऊपर जिन का ध्यानमुद्रा में अंकन हुआ है। प्रस्तुत मूर्ति कला-संग्रहालय, बोस्टन में प्रदर्शित है। पश्चिमी भारत में वि.सं. १३६६ (१३०९ ई.) में निर्मित अम्बिका की एक पीतल की मृति को एक ऊंचे आसन पर ललितासन में बैठे दिखाया गया है परन्तु यहां आम्र वृक्ष का अभाव है, यद्यपि यह अपने दाहिने हाथ में आमों का गुच्छा लिए है। बांए हाथ से अपने पुत्र को गोदी में सम्हाले है और इनका अन्य पुत्र इनके दाहिने पैर के समीप खड़ा है। देवी ने करण्ड, मुकुट, कुण्डल, हार व साड़ी पहिन रखी है तथा इनका वाहन सिंह बांए पैर के समीप खड़ा है। सबसे ऊपरी भाग में एक ताख में जिन की ध्यान मुद्रा में मूर्ति बनी है। यह मूर्ति अंजलि गैलेरी में विद्यमान है। इस लेख में हमने संक्षेप में केवल कुछ जैन मूर्तियों का जो इस समय अमेरीका में विद्यमान हैं, का वर्णन किया है। परन्तु उपर्युक्त वणित संग्रहालयों एवं निजी संग्रहों के अतिरिक्त भी अनेक दूसरे संग्रहालयों में जैन मूर्तियां हैं। और उनका भी अध्ययन होना परमावश्यक है। आशा है उन पर भी विद्वान लेख लिखकर सभी को लाभ पहुचायेंगे। ( रामायण की लोकप्रियता....पृष्ठ १३० का शेष) सीता निःशंक होकर उस प्रज्वलित अग्निकुंड में प्रवेश करती है। प्रवेश करते समय वह कहती है कि हे अग्नि देव ! मनसे, वचन से, और काय से जागृत अवस्था में और स्वप्न अवस्था में मेरा पतिभाव रधुनाथ को छोड़ कर अन्य किसी भी पुरुष में हो तो, मुझे जला डालो। अगर मेरा शील सच्चा है तो मेरी रक्षा करो। देवों ने उसी समय अग्नि को पानी बनाया और उसमें एक सिंहासन रख कर उसमें सीता को बैठाया। चारों तरफ जय-जयकार हवा । राम ने कहा सीता तुम परीक्षा में सफल हुई, अब मेरे साथ महल में चलो । सीता ने इनकार करते हुवे कहा कि जब आपने मुझे दूर रहने को कहा था तभी मैं संसार से विरक्त हो गई थी। परीक्षा मैने इसलिये दी कि अगर बिना परीक्षा दिये मैं चली जाती तो लोगों को यह शंका रहती कि सीता पवित्र है या नहीं। अब तो मेरा जीवन जंगल में आत्म-साधना में ही बीतेगा। राम निराश हो कर महल में लौट गये। सीता के शील की चारों-ओर प्रशंसा होने लगी। रामायण ऐसी अनेक घटनाओं से भरी पड़ी है। इसी कारण से बह लोकप्रिय बनी रही है । उत्तर भारत में रामकथा रामलीला के रूप में बड़े आदर व प्रेम के साथ खेली व देखी जाती है। 0 वी. नि. सं. २५०३ Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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