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________________ जैनधर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान बालचन्द कोठारी जंन धर्म अपने विचार और जीवन संबंधी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना, उसकी भमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही । समस्त भारत देश आज की राजनैतिक दृष्टिमात्र से ही नहीं किन्तु अपनी प्राचीनतम धार्मिक परम्परानसार भी जैनियों के लिये एक इकाई और श्रद्धा भक्ति का भाजन बना है। जैन तीर्थकर भगवान महावीर ने लोकोपकार की भावना से उस समय की सुबोध वाणी अर्धमागधी का उपयोग किया तथा उनके गणघरों ने भी उसी भाषा में उनके उपदेशों को संकलन किया । जैन आचार्य जहाँ-जहाँ गये वहां-वहां उन्होंने उन्हीं प्रदेशों में प्रचलित लोक भाषा को अपनी साहित्य रचना का माध्यम बनाया। हिन्दी गुजराती आदि आधुनिक भाषाओं का प्राचीनतम साहित्य जैनियों का ही मिलता है। दक्षिण में तामिल और कन्नड भाषाओं को प्राचीन काल में साहित्य में उतारने का श्रेय जैनियों को ही दिया जा सकता है। जैनियों ने कभी भी किसी एक प्रान्तीय भाषा का पक्षपात नहीं किया सदैव देश भर की भाषाओं को समान आदरभाव से अपनाया है और इस बात के लिये उनका विशाल साहित्य साक्षी है। राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्यभाव रहा है और उन्हें अवतार पुरुष माना गया है । जैनियों ने तीर्थकरों के साथ-साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है। जैन पुराणों में उच्चता और सम्मान का स्थान देकर रावण व जरासंघ जैसे अनार्य राजाओं की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचने दी। रावण को दशमुखीं राक्षस न मानकर उसे विद्याधरवंशो माना है जिसके स्वाभाविक एक मुख के अतिरिक्त गले में हार की नौ मणियों में मुख का प्रतिबिम्ब पड़ने से लोग उसे दशानन भी कहते थे। जैन पुराणों में हनुमान, सुग्रीव आदि को बंदर नहीं किन्तु विद्याधरवंशी राजा माना गया है जिनका ध्वजचिह्न बानर था । जैन दर्शन जीव और अजीव रूप से दोनों तत्वों को स्वीकार करता है, उसमें छह द्रव्यों को माना है । द्रव्य वह है जिसमें सत्तागुण है और सत्ता त्रिगुणात्मक है । उत्पादन, व्यय, और ध्रौव्य तीन गुण हैं। ___संसार में चैतन्य गुणयुक्त आत्मतत्व भी है और चैतन्यहीन मूर्तिमान भौतिक पदार्थ तथा अमूर्तिक काल आकाशादि तत्व भी । ये सभी द्रव्य गुण पर्यायात्मक हैं। अपनी गुणात्मक अवस्था के कारण उनमें ध्रुवता है तथा पर्यायात्मक के कारण उनमें उत्पत्ति विनाशरूप अवस्थाएं भी विद्यमान हैं। जैन धर्म के इस दार्शनिक तत्वज्ञान में ही उसकी व्यापक दृष्टि पाई जाती है और इसी व्यापक दृष्टि से वस्तु विचार के लिए जैन धर्म ने अपना स्यावाद अनेकांत रूप न्याय स्थापित किया है। इसी उद्देश्य से जैन आचार्यों ने देश काल, तथा द्रव्य और भाव के अनुसार भी वस्तु वैचित्र्य का विचार करने पर जोर दिया है। जबकि हमारा देश वैयक्तिक व्यवहार में ही नहीं किन्तु राष्ट्रीय अन्तर-राष्ट्रीय नीति के निर्धारण में भी अहिंसा तत्व को मौलिक रूप से स्वीकार कर चुका है। तब जैन धर्म का अहिंसा सिद्धांत अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण सिद्ध होता है और उसके सूक्ष्म अध्ययन और विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसी समन्वयात्मक अनेकांत सिद्धांत के आधार पर आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व हुवे समन्तभद्राचार्य ने अपने युत्यनुशासन नामक ग्रन्थ में महावीर के जैन शासन को सब आपदाओं का निवारक शाश्वत सर्वोदय तीर्थ कहा है । वी. नि. सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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