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________________ अर्हत दर्शन में सम्यक् चारित्र और पांच महाव्रतों का इस प्रकार वर्णन है "संसरणकर्मोच्छित्तावुधतस्य श्रद्धानस्य ज्ञानवल: पापगमन कारणं क्रियानिवृत्तिः सम्यक्चारित्रम्।" ___ अर्थात् संसार के प्रवर्तन के कारण स्वरूप कर्मों के नष्ट हो जाने पर साधना में तत्पर श्रद्धावान तथा ज्ञानवान साधक का पापों की तरफ ले जाने वाली क्रियाओं से निवृत्त हो जाना ही सम्यक्चारित्र है। पांच महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है। १. न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । चराणां स्थावराणां च तदहिंसा व्रतं मतम् ।। अर्थात् असावधानी या पागलपन से भी जब स्थावर या जंगम किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं की जाती, उसे अहिंसा कहते हैं। २. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं व्रतमुच्यते । तथ्यमपि नो तथ्यप्रियं चाहितं च यत् ।। अर्थात् सुनने में भी सुखद हो और अंतिम परिणाम भी जिसका सुखद हो तथा यथार्थ भी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रत कहते हैं। ३. अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम्। बाह्याः प्राणा नृणामों हरता तं हता हि ते।। अर्थात् धन मनुष्य का बाह्य प्राण है, उसे दिये बिना लेने का प्रयत्न न करें। धन-स्वामी की स्वेच्छा के विरुद्ध उसके धन का हरण तो उसके प्राणों का हरण ही समझना चाहिये । ४. दिव्यौदरि ककामाना कृतानुमतकारितः मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधापतम् ।। अर्थात् सभी प्रकार के भोग्य से मन, वचन तथा कर्म द्वारा उपरमता ब्रह्मचर्य है । ५. सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः। __ यदसत्स्वपि जायते मूर्छया चित्तविप्लवः ।। अर्थात् सभी वस्तुओं में इच्छा का त्याग अपरिग्रह है। क्योंकि इच्छा के कारण असत् पदार्थों में भी चित्तविकृति हो जाती है। इस प्रकार आचार पक्ष को अत्यधिक महत्व दिया गया है। विचार भी समन्वयवादी दीखता है। आज के बैचारवैविध्य में जहाँ तक हो सके उदारभाव से समन्वय के लिये प्रयत्नशील रहना योग्य ही है। 'राजेन्द्र-ज्योति' की वर्तमान समय में विशेष आवश्यकता है। क्योंकि केवल संत पुरुष ही प्रवास कर रहे हैं ऐसा नहीं है। अपितुप्रवासी तो सभी हैं। परन्तु आज की आम जनता प्रायः अंधेरे में ही प्रवास कर रही है, ठोकरें खा रही है, परेशान हो रही है। हमें उन्हें बचाना है। उनके दुःख को दूर करना है, उन्हें खड्डे में नहीं गिरने देना है--'राजेन्द्रज्योति प्रदान कर । (ध्यान-साधना : आधुनिक संवर्भ. . . . पृष्ठ ८८ का शेष) प्रारंभ में हम भौतिक और बाहरी विघ्नों पर विजय प्राप्त करते हैं पर जब शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है तब हम आन्तरिक शत्रुओं, वासनाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। आज आन्तरिक खतरे अधिक सूक्ष्म और बलशाली बन गये हैं उन्हें वशवर्ती बनाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है । ध्यान और सामाजिकता का प्रश्न ध्यान-साधना आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत तो है ही, सामाजिक शालीनता और विश्वबन्धुत्व की भावना वृद्धि में भी उससे सहायता मिल सकती है। यह जीवन के पलायन नहीं, वरन् जीवन को ईमानदार, सदाचारनिष्ठ, कलात्मक और अनुशासनबद्ध बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण साधन है। यह एक ऐसी संगमस्थली है जहां विभिन्न धर्मों, जातियों और संस्कृतियों के लोग एक साथ मिल बैठ परम सत्य से साक्षात्कार कर सकते हैं, अपने आपको पहचान सकते हैं, शर्त केवल यही है कि इसे भोगोन्मुख होने से रोका जाय। जो व्यक्ति क्रोधी होता है अथवा जिसका क्रोध कभी शान्त नहीं होता, जो सज्जन और मित्रों का तिरस्कार करता है, जो विद्वान् होकर भी अभिमान रखता है, जो दूसरों के मर्म प्रकट करता है और अपने कुटुम्ब अथवा गुरु के साथ भी द्रोह करता है, किसी को कर्कश वचन बोल कर सन्ताप पहुंचाता है और जो सबका अप्रिय है, वह पुरुष अविनीत, दर्गति और अनादर का पात्र है । ऐसे व्यक्ति को आत्मोद्धार का मार्ग नहीं मिलता है । -राजेन्द्र सूरि राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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