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________________ जैनधर्म में स्त्रियों के अधिकार पं. परमेष्ठीदास जैन जन धर्म की सबसे बड़ी उदारता यह है कि पुरुषों की ही भांति स्त्रियों को भी तमाम धार्मिक अधिकार दिये गये हैं। जिस प्रकार पुरुष पूजा प्रक्षाल कर सकता है उसी प्रकार स्त्रियां भी कर सकती हैं। यदि पुरुष श्रावक के उच्च व्रतों का पालन कर सकता है तो स्त्रियां भी उच्च श्राविका हो सकती हैं। यदि पुरुष ऊंचे से ऊंचे धर्म ग्रन्थों के पाठी हो सकते हैं तो स्त्रियों को भी यही अधिकार है । यदि पुरुष मुनि हो सकता है तो स्त्रियां भी आयिका होकर पंच महाव्रत धारण कर सकती हैं। धार्मिक अधिकारों की भांति सामाजिक अधिकार भी स्त्रियों के लिये समान ही हैं। यह बात दूसरी है कि वर्तमान में वैदिक धर्म आदि के प्रभाव से जैन समाज अपने कर्तव्यों को और धर्म की आज्ञाओं को भुल गया है । हिन्दू शास्त्रानुसार सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र तो होता है किन्तु पुत्रियां उसकी अधिकारिणी नहीं मानी जाती हैं। जैन शास्त्रों में स्त्री-सम्मान के भी अनेक उल्लेख पाये जाते हैं। आज कल मूढ़ जन स्त्रियों को पैर की जूती या दासी समझते हैं, तब जैन राजा राजसभा में अपनी रानियों का उठकर सम्मान करते थे और अपना अर्धासन उन्हें बैठने को देते थे । भगवान महावीर की माता महारानी प्रियकारिणी जब अपने स्वप्नों का फल पूछने महाराजा सिद्धार्थ के पास गई तब महाराजा ने उठकर अपनी धर्मपत्नी को आधा आसन दिया, महारानी ने वहां बैठकर अपने स्वप्नों का वर्णन किया । यथा-- (संप्राप्तासिना स्वप्नान् यथाक्रममुदाहरत्) । --उत्तरपुराण धर्मशास्त्र पढ़ने की अधिकारिणी इसी प्रकार महारानियों का राजसभाओं में जाने और वहां पर सम्मान प्राप्त करने के अनेक उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं। जबकि वैदिक ग्रन्थ स्त्रियों को धर्मग्रन्थों के अध्ययन करने का निषेध करते हुए लिखते हैं कि-- (स्त्री-शूद्रौ नाधीयाताम्) तब जैन ग्रंथ स्त्रियों को ग्यारह अंग शास्त्रों के पठन पाठन करने का अधिकार देते हैं । यथा-- द्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरी गणी: एकादशांगमृज्जाताऽऽर्यिकापि सुलोचना ।।५२।। --हरिवंशपुराण सर्ग-१२१ अर्थात-जयकुमार भगवान का द्वादशांगधारी गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग की धारक आर्यिका हुई । इसी प्रकार स्त्रियां सिद्धान्त ग्रन्थों के अध्ययन के साथ ही जिन प्रतिमा की पूजा प्रक्षाल भी किया करती थी । अंजना सुंदरी ने १. श्वेताम्बराम्नायानुसार त्रिशलादेवी । पुत्रियां भी पिता की सम्पत्ति की भागीदार इस संबंध में श्री भगवज्जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण .(पर्व ३८) में स्पष्ट लिखा है कि पुयश्च संविभागाहाः समं पुत्रः समाशके: ।।१५४।। अर्थात् पुत्रों की भांति पुत्रियां भी सम्पत्ति की बराबर-बराबर भाग को अधिकारिणी हैं। इस प्रकार जैन कानून के अनुसार स्त्रियों को, विधवाओं को या कन्याओं को पुरुष के समान ही सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं। (विशेष जानकारी के लिये विद्यावारिधि, जैनदर्शन दिवाकर बेरिस्टर चम्पतराय जैन कृत (जैन लॉ) नामक ग्रन्थ देखना चाहिये)। वी.नि. सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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