SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के प्रभाव में आर्त के अलावा धर्मध्यान आता है। छठे गुणस्थान में संयम के आलम्बन से आर्तध्यान होने के बावजूद धर्मध्यान की मुख्यता रहती है । सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान रहता है। आठवें से बारहवें तक पांच गुणस्थानों में धर्म एवं शुक्लध्यान रहता है। तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में केवल शुक्लध्यान रहता है। यही शुक्लध्यान की तीव्र ध्यानाग्नि से सकल कर्म कष्टों को जलाकर, भस्म करके, चेतन शुद्ध कुन्दन सम अपने स्वाभाविक ज्ञानमय आत्मस्वरूप के रसास्वादन में मग्न होता है। जैनदर्शन के अलावा आजीविका सम्प्रदाय से आध्यात्मिक विकास की आठ सीढ़ियां बतलाई हैं । बौद्ध दर्शन में जीव विकास की छह स्थितियाँ निर्देशित की हैं। योगशास्त्र के महाभाष्य में चित्त की पाँच वृत्तियों के विकास क्रम का वर्णन है । योगवासिष्ठ में ज्ञानदशा की सात भूमिका दर्शायी है। एक या दूसरे रूप में सभी जगह आध्यात्मिक विकास की चर्चा अवश्य है किन्तु गुणस्थान के विकास क्रम सरीखा शृंखलाबद्ध सु-संगत सर्वांगपूर्ण वर्णन जैनदर्शन की अनुपम देन है। इस प्रकार जैनदर्शन की मौलिक संपत्ति स्वरूप गुणस्थान का वर्णन आध्यात्मिक विकास के सोपान लेख के माध्यम से किया है जिनका मनन, चिन्तन एवं परामर्श द्वारा गुणस्थान की भूमिका पर आरोहण करता चेतन देवेन्द्रों-नरेन्द्रों एवं यतीन्द्रों से अभिलिखित, प्रशंसित एवं इष्ट सौभाग्यलक्ष्मी से अंकित मुक्ति के परमधाम को प्राप्त करे। यही मंगल कामना । गुणस्थानों की आधारशिला गुणस्थान जैनदर्शन का मौलिक पदार्थ है। चेतना के विकास क्रम की नींव है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरी महाराज ने गुणस्थान के आधार पर ही श्री योग-दृष्टि-समुच्चय में आठ दृष्टि द्वारा विकास क्रम निर्दिष्ट किया है। कुस चीवरा धारण करने से कोई तापस नहीं कहाता, ___ ऋषि मुनि नहीं बना करते हैं केवल निर्जन में रहने से। समता-दर्शी , श्रमण, ब्राह्मण ब्रह्मचर्थ से, तपसे तपसी और मनन से मुनि होता है । कर्म प्रभावित करता जन को, यह सुनि चारित, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, सब कर्माधारित ।। बशीर अहमद 'मयूख', समाजवाद कर्मणाधर्म: ण वि मुंडिएण समजो, ण ओंकारेण बंभणो । मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो ॥२५॥३१ समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो॥३२।। कम्भुणा बंभणो होइ, कम्भुणा होइ खत्तिओ । बईसो कम्भुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्भुणा ।।३३।। (उत्तराध्ययन) सिर मुंडन से कोई श्रमण नहीं बन जाता, और ब्राह्मण नहीं ओम का जप करने से, जं इच्छसि अप्पण तो, जं च न इच्छसि अप्पण तो। तं इच्छ परस्स वि, एत्तियंग जिणसाउयणं ॥४५८४।। (बृहत्त कल्प भाष्य) जो तुम अपने लिये चाहते, वही अन्य के हित भी चाहो ।। जो निज के हित नहीं चाहते, दीन, अन्य को वह परिवेश ।। बस इतना ही जिन शासन है, यही तीर्थंकरों का उपदेश ।। बी. नि.सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy