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________________ कर्म भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं और उसी प्रकार सामान्य गुण भी अनंत होते हैं और विशेष भी अनंत । जीव भो कर्मस्वभाव भाव से अपने को करता है। यदि कर्म-कर्म अनन्त गुणों का कथन तो सम्भव नहीं है । अतः यह सामान्य को और आत्मा-आत्मा को करे तो फिर कर्म आत्मा को फल क्यों गुणों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है:-- देगा और आत्मा उसका फल क्यों भोगेगा? अर्थात नहीं भोगेगा। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रेमत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। जहाँ कर्तावादी दार्शनिकों के सामने जगत ईश्वरक्त होने से प्रत्येक द्रव्य की सत्ता अपने अस्तित्व गुण के कारण है न कि सादि स्वीकार किया गया है वहां अकर्तावादी या स्वयंकर्तावादी पर के कारण। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व अनादि अनन्त है, इसे न तो किसी भी है जिसके कारण प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिणमित होता ने बनाया है और न ही कोई इसका विनाश कर सकता है, यह है उसे अपने परिणमन में पर से सहयोग की अपेक्षा नहीं स्वयं सिद्ध है। विश्व का कभी भी सर्वथा नाश नहीं होता, मात्र रहती है । अतः कोई भी अपने परिणमन में परमखापेक्षी नहीं परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन भी कभी-कभी नहीं, है। यही उसकी स्वतंत्रता का आधार है। अस्तित्व गुण प्रत्येक निरन्तर हुआ करता है। द्रव्य की सत्ता का आधार है और द्रव्यत्व गण परिणमन का। यह समस्त जगत परिवर्तनशील होकर भी नित्य है और अगरुलघुत्व गुण के कारण एक द्रव्य का दूसरे में प्रवेश संभव नित्य होकर भी परिवर्तनशील । यह नित्यनित्यात्मक है। इसकी नहीं है। नित्यता स्वतः सिद्ध है और परिवर्तन स्वभावगत धर्म। सद्भाव के समान अभाव भी वस्तु का धर्म है । कहा भी है "भवत्यभावोऽपि च वस्तु धर्मा:7 नित्यता के समान अनित्यता भी वस्तु का स्वरूप है। सत् उत्पाद-व्यय ध्रौव्य से युक्त होता है। उत्पाद और व्यय परिवर्तन अभाव चार प्रकार का माना गया है.शीलता का नाम है और ध्रौव्य नित्यता का। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद प्रार्गाभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। अत: वह द्रव्य है। द्रव्य गण और पर्यायवार होता है। जो द्रव्य के संपूर्ण भागों और समस्त अवस्थाओं में रहे एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव होने उसे गुण कहते हैं तथा गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है। के कारण भी उसकी स्वतंत्रता सदाकाल अखण्डित रहती है जहाँ अत्यन्ताभाव द्रव्यों की स्वतंत्रता की दुंदुभि बजाते हैं। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अनन्त गुण होते हैं जिन्हें दो भागों में जैन दर्शन के स्वातन्त्र्य सिद्धान्त के आधारभूत इन सब वर्गीकृत किया जाता है । सामान्य गुण और विशेष गण। सामान्य गण सब द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और विषयों की चर्चा जैन दर्शन में विस्तार से की गई है। इनकी विशेष गुण अपने-अपने द्रव्य में पृथक्-पृथक् होते हैं। विस्तृत चर्चा करना यहाँ न तो संभव और न अपेक्षित । जिन्हें जिज्ञासा हो, जिन्हें जैन दर्शन का हार्ट जानना हो, उन्हें उसका गंभीर अध्ययन करना चाहिए। ५. आचार्य उमास्वामी: तत्वार्थसूत्र, अध्याय ५ सूत्र ३० ६. वही अध्याय ५ सूत्र ३८ ७. आचार्य समन्तभद्र : युक्त्यनुशासन, कारिका ३९ (जैन दर्शन में पुद्गल का स्वरूप....पृष्ठ ६४ का शेष) (स्पर्श, रस, गन्ध, शब्द) के विषयभूत होते हैं, गुण की दृष्टि से पुद्गल परमाणु इस लोक में एक सिरे से सूक्ष्म बादर कहलाते हैं। जैसे वायु, गैस आदि । दूसरे सिरे तक लगातार गति करते रहते हैं। लोक का ऐसा कोई मनोवर्गणा, भाषा वर्गणा और वायु वर्गणा, अतीन्द्रिय भी प्रदेश नहीं हैं जहाँ पुद्गल का अस्तित्व नहीं हो। यह सर्वत्र पुद्गल स्कन्ध सूक्ष्म कहलाते हैं, ये इन्द्रिय ग्राह्य भी व्याप्त है। पुद्गल परमाणुओं का स्कन्ध में तथा स्कन्ध का पदगल परमाणुओं में परिवर्तन लगातार होता रहता है, किन्तु नहीं होते हैं। यह परिवर्तन भी काल सापेक्ष दृष्टि से होता है। ६. अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्कन्धों से भी सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध (द्विप्रदेशी) अति सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं। चूंकि परमाणु पुद्गल की सूक्ष्मतम इकाई है और निश्चय पूदगल अस्तिकाय के स्वरूप को, उसकी दस प्रकार की नय की दृष्टि से ही मूर्त माना गया है। इसलिये स्वयं परमाण अवस्थाओं द्वारा भी समझा जा सकता है। वे क्रमशः शब्द, बन्ध, में गलन मिलन की प्रक्रिया नहीं है। यदि किसी तरह से यह सक्ष्मस्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप तथा उद्योत हैं। प्रमाणित हो जावे कि गलन-मिलन की प्रक्रिया केवल पूदगल स्कन्धों पर ही लागू होती है, तो इस शुद्ध पुद्गल परमाणु ___ शब्द की उत्पत्ति महास्कन्धों के संघट्ट से होती है, बन्ध को पुद्गल की परिभाषा से मुक्त किया जा सकता है। यह की स्थिति परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में सम्भव है। श्वेताम्बर विचार का, शोध का विषय है। परम्परा के अनुसार जघन्य अंश वाले परमाणु का अजघन्य अंश वाले परमाणु के साथ बन्ध होता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के पुदगल की उपयोगिता के बारे में विचार करें तो पुदगल अनसार बन्ध केवल एक ही स्थिति में होता है, जब दोनों पुदगल का मनुष्य जीवन पर बहुत उपकार है। सम्पूर्ण सृष्टि की रचना परमाण में स्निग्धता तथा रूक्षता के अंश जघन्य नहीं हों, और ही पौद्गलिक है। शरीर, आहार, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छवास, दोनों में दो अंशों से अधिक का अन्तर नहीं हो। इसी प्रकार द्रव्यमन, द्रव्य कर्म, नो कर्म सभी पुद्गल की ही पर्याय है। निश्चय सूक्ष्म, स्थल, भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत भी पुद्गल अस्ति- नय की दृष्टि से देखा जाये तो जीव (शुद्ध) को छोड़कर संसार काय (स्कन्ध) की अवस्था है। की प्रत्येक वस्तु पुद्गल पर्याय है। वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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