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________________ जैन दर्शन में पुद्गल का स्वरूप चन्द्रकान्त संघवी, एम. एस.सी. 'पूरणात् पुद गलयतीति गलः' नियुक्ति के अनुसार जो मरता भी है, और गलता भी है, वह पुद्गल है। पुद्गल शब्द दो धातु (पुद) और (गल) के संयोग से बना है। (पुद) का अर्थ संश्लेष मिलन और गल का अर्थ अलग होना होता है। पुद्गल द्रव्य है, आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से MATTER है। यह जड़ है, अचेतन है। पुद्गल की सब से छोटी इकाई परमाणु कहलाती है। शुद्ध पुद्गल परमाणु अभेद्य, अछेद्य, अग्राह्य, और निविभाग होता है। यह पुद्गल का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप है। इस परमाणु की लम्बाई, चौड़ाई, मध्य या अन्त नापा नहीं जा सकता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य भी नहीं है, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इसका अस्तित्व नहीं है, कहने का तात्पर्य यह है कि साधारण ज्ञान वाले व्यक्ति के लिये पुद्गल परमाणु दृष्टिगोचर नहीं है। जाना नहीं जा सकता है। यहां पर स्वाभाविक ही एक शंका उत्पन्न हो जाती है कि जैन दर्शन का यह परमाणु अछेद्य अभेद्य है, किन्तु आधुनिक विज्ञान में परमाणु को विभाज्य माना है, विशेष स्थितियों में परमाणु को कई भागों में तोड़ा जा सकता है, इस बात को जैन सूत्र "अनुद्वार योग" में बड़ी ही सरलता से समझाया गया है। आधुनिक भौतिक विज्ञान जिस परमाणु की बात कर रहा है वह जैन दर्शन की दृष्टि में एक परमाणु न होकर परमाणुओं का पिण्ड है, व्यावहारिक परमाणु है, यह परमाणु भी साधारण दृष्टि से गोचर नहीं होता है। विशेष उपकरणों के द्वारा ही देखा जा सकता है, तथा विभाजित किया जा सकता है। भौतिकी के ये परमाणु (दो या दो से अधिक) आपस में मिलकर (विशेष स्थितियों में) अणु का निर्माण करते हैं, इस अणु में उस तत्व के सभी गुण विद्यमान रहते हैं। इसी तरह से पुद्गल परमाणु जो स्कन्ध का कर्ता है, आपस में मिलकर द्विस्कन्ध, त्रिस्कन्ध तथा चतुःस्कन्ध का निर्माण करते हैं, संख्यात, असंख्यात परमाणु आपस में मिलकर संख्यात असंख्यात स्कन्धों का निर्माण करते हैं। पुद्गल परमाणु का स्वरूप उसके रूप, रस, गन्ध, तथा स्पर्श द्वारा व्यक्त होता है। एक शुद्ध पुद्गल परमाणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध, तथा दो स्पर्श (शोत ऊष्ण या स्निग्ध-रूक्ष दोनों में से कोई एक) होते हैं। इस प्रकार से एक पुद्गल परमाणु की पाँच पर्याय होती है। पुद्गल परमाणु आपस में मिलकर स्कन्ध का निर्माण करते हैं, तो इनकी पर्याय (गुण) बदल जाती है, स्कन्ध में आठ स्पर्श (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघ, गुरु, मृदु और कर्कश), पांच रस (अम्ल, मधुर, कटु, कषाय, और तिक्त), दो गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध) तथा पांच वर्ण (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत) होते हैं। पुद्गल की भी अनेक पर्याय हैं, मुख्यतया छ: है। (१) बादर बादर (२) बादर (३) बादर सूक्ष्म (४) सूक्ष्म बादर (५) सूक्ष्म (६) सूक्ष्म-सूक्ष्म ।। १. वे पुद्गल स्कन्ध जिन्हें दो या दो से अधिक भागों में विभाजित किया जा सके, और पुनः आपस में मिलाने पर मिले, बादर-बादर (स्थूल-स्थूल) कहलाते हैं, जैसे-लकड़ी, पत्थर।। वे पुद्गल स्कन्ध जिनका खण्ड-खण्ड कर दिया जावे और आपस में मिलाने पर पुनः मिल जावे, बादर कहलाते हैं, जैसे दूध, घी, तेल । वे पुद्गल स्कन्ध जो दिखने में तो स्थूल लगें किन्तु खण्ड-खण्ड नहीं किये जा सकें, हाथ से ग्रहण करना चाहें, तो ग्रहण नहीं कर सकें। एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना चाहें, तो नहीं ले जा सकें, बादरसूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं जैसे धूप, छाँव, चाँदनी आदि । वे पुद्गल स्कन्ध जो दिखने में तो स्थूल प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तव में सूक्ष्म होते हैं, चार इन्द्रियों (शेष पृष्ठ ७१ पर) राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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