SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सहिष्णुता और धीरता प्रदान करता है। वह सान्त्वना दिलाता है कि मानव यह सब तूने स्वयं ने किया है और जो कुछ किया है उसका फल भी तुझे ही भोगना होगा । ऐसा कभी हो नहीं सकता कि कर्म मानव स्वयं करे उसका फल और कोई भोगे। यह बात उत्तराध्ययन में कही गई है। अप्पाकत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अर्थात् यह आत्मा सुख-दुःख का कर्ता उपभोक्ता स्वयं ही है। कर्मवाद का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल मिलेगा। न्याय दर्शन की तरह जैन दर्शन कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता है। जैसे गणित की संख्या बताने वाली जड़ मशीन अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की कतई आवश्यकता नहीं है। कर्म के विपरीत ईश्वर कुछ फल देने में समर्थ थोड़े ही होगा। वैदिक दर्शन की तरह ही जैन दर्शन कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। जो कुछ इस आत्मा ने पूर्व में किया है वही आज उसे मिला है। इसी क्रम में आचार्य अमितगति का कथन है कि: स्वयं वृत्तं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा तात्पर्य यह है कि कर्मवाद को समझ लेने के बाद जीवन में आने वाले सुख-दुःख के झंझावातों से मानव का मन कंपित नहीं होता। वह बताता है कि हमारी वर्तमान अवस्था जैसी और जो कुछ भी है वह किसी दूसरे के द्वारा थोपी हुई नहीं है बल्कि मानव स्वयं उसका निर्माता है। मानव जीवन में जो कुछ भी सुख-दुःख अवस्थाएं आती हैं, उनका बनाने वाला कोई अन्य नहीं है स्वयं मानव ही है। अतएव जीवन में जो उत्थान-पतन आता है, उत्कर्ष-अपकर्ष होता है, तथा सुख-दु.ख आता है- उन सबका उत्तरदायित्व उसके जीवन पर ही निर्भर है वह स्वयं ही सुख-दुःख का केन्द्र है, एक दार्शनिक कहता है। I AM MASTER OF MY FATE I AM THE CAPTAIN OF MY SOUL. अर्थात् मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हूं। मैं स्वयं अपनी आत्मा का अधिनायक हैं। मैं स्वयं ही अपनी शक्ति के सहारे उठता है और स्वयं ही अपनी शक्ति के ह्रास से गिरता हूं। जो कुछ मैं अपने जीवन में प्राप्त करता हूं वह सब कुछ मेरी अपनी बोई हुई खेती का अच्छा या बुरा फल है। अत: जीवन में उदासीनता, हताशा, निरुत्साहिता, दीनता और हीनता लाने की आवश्यकता ही नहीं है यही प्रेरणा मानव को कर्मवाद देता है। पुरुषार्थ मूलक कर्मवाद मानव को उत्साहवर्धक प्रेरणा देता है कि नियतिवाद, भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस भाग्य का निर्माण उसके अतीतकाल के पुरुषार्थ से ही तो निर्मित हुआ है। जैन दर्शन के कर्मवाद में मानव अपने भाग्य की एवं नियति चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है। इस आधार पर वह अपने पुरुषार्थ एवं प्रयास से तथा अपनी विवेक शक्ति से अपने भाग्य • को, अपने कर्म को बदल भी सकता है। अपने नियति-चक्र को वह जैसा चाहे पलटने की योग्यता और क्षमता रखता है। आत्मबल के द्वारा कर्मावरण को दूर कर परमात्मस्वरूप प्रकट कर सकता है। कर्मवाद में दृढ़ विश्वास रखनेवाला व्यक्ति यह भलीभांति समझता है कि सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण मेरे अपने ही हाथ में हैं। वे किसी के द्वारा दिए गए वरदान या अभिशाप का फल नहीं हैं। अपने शौर्य से, पुरुषार्थ से, सब कुछ अधिगत कर लेता है। न कभी उन्मत्त होता है और न कभी विह्वल होता है, कष्ट में। कर्मवाद के इस स्वर्ण सिद्धान्त को अगर अपने जीवन में स्थान दें तो जीवन के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होता है। हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं, अनुभव करते हैं कि कभी जीवन में सुख के सुहावने बादल छा जाते हैं और कभी दुःख की धनघोर काली घटाएं छा जाती हैं। दुःख आने पर हम विह्वल हो जाते हैं उस समय लगता है कि यह जीवन अनेक संकटों, कष्टों और क्लेशों से व्याप्त है। एक ओर बाह्य प्रतिकूल विवशताएं बेहद परेशान करती हैं मानव को और दूसरी तरफ अन्तर्हृदय में व्याकुलता बढ़ जाती है। ऐसी विषम परिस्थितियों में हम तो क्या ज्ञानी पुरुष भी अपने पथ से भटक जाते हैं। सन्तुलन खो जाता है। निरुत्साह, हतोत्साह हो जाते हैं। अन्य को कोसने लगते हैं जो मात्र बाहरी निमित्त है। मूल उपादान को भूलकर हमारी नजरें बाहर दौड़ने लगती हैं ऐसे प्रसंगों में वस्तुतः कर्मवाद ही हमें शांति प्रदान करता है, हमारे गन्तव्य मार्ग को आलोकित कर सकता है, विपथगामी आत्मा को सत्तथ पर ला सकता है। कर्मशास्त्र बतलाता है कि सुख-दुःख का मूल कारण मेरा अपना पूर्वकृत कर्म ही है। यह एक शाश्वत सिद्धान्त है कि जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा। वृक्ष का मूल कारण जैसे बीज है वैसे मानव के भौतिक जीवन का कारण कर्म ही है। रामचरितमानस में भी कहा गया है कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा। सुख-दुःख के इस कार्यकारण भाव को समझा कर कर्म-शास्त्र मनुष्य को आकुलता-व्याकुलता, समता-विषमता की गहन राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Interational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy