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________________ जीवों की मुक्ति कभी नहीं होती है और भव्यों में अनन्त आत्मा अतीत में मोक्ष गये हैं और भविष्य में अवश्य जावेंगे। इसी आधार पर जीव का कर्म के साथ दो प्रकार का सम्बन्ध बताया गया है। कर्म के भेद कर्मों के दो भेद हैं-द्रव्य कर्म और भाव-कर्म । कर्म वर्गणा केपुदगलों का सूक्ष्म विकार द्रव्य कर्म है और आत्मा के राग-द्वेष आदि वैभाविक परिणाम भाव कर्म हैं। राग-द्वेष आदि वैभाविक परिणामों का उपादान कारण जीव है, इसलिये उपादान रूप से भाव कर्म का कर्ता जीव ही है। द्रव्य कर्म में जीव के शुभाशुभ भाव निमित्त कारण हैं। इसलिये निमित्त रूप से द्रव्य कर्म का कर्ता भी जीव ही है। भाव कर्म के होने में पूर्वबद्ध द्रव्य निमित्त हैं और वर्तमान में बध्यमान द्रव्य कर्म में भाव-कर्म निमित्त हैं। दोनों में निमित्त-नैमित्तिक रूप कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है। सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमीचन्द्र ने स्वप्रणीत “गोम्मटसार" ग्रंथ के कर्मकाण्ड में द्रव्य कर्म और भाव कर्म का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है "पोग्गलपिण्डो दव्वं तत्सत्ति भाव-कम्मं तु" पुदगल पिंड को द्रव्य कर्म और उसकी फल देने को शक्ति विशेष को भाव कर्म कहा है। कर्म के अस्तित्व में प्रमाण प्रश्न होता है कि हम इस तथ्य को कैसे समझे कि कर्म का अस्तित्व होता है ? कम भौतिक होते हुए भी इतना सूक्ष्म तत्व है कि इन्द्रियों से उसे जाना और देखा नहीं जा सकता। जो ज्ञान ऐन्द्रियक नहीं है, उन्हीं के द्वारा कर्म का साक्षात्कार हो सकता है। हां, हेतु और तर्क द्वारा भी कर्म के अस्तित्व को प्रमाणित किया जा सकता है। संसार के सभी जीव एक जैसे नहीं होते, जीवों की यह विविधता ही और संसार की यह विचित्रता ही, कर्म के अस्तित्व में सबसे बड़ा प्रमाण है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्म के अस्तित्व में प्रमाण इस प्रकार माना गया है कि संसार के सभी जीव आत्म-स्वरूप की अपेक्षा से भले ही एक हैं फिर भी वे भिन्न-भिन्न योनियों में और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में होने से पृथक्-पृथक् स्थिति एवं दशा में होते हैं। एक राजा है, दूसरा रक। एक विद्वान है, दूसरा मूर्ख । एक निरोग है, दूसरा रोगी। एक सुखी है, दूसरा दुखी। एक सुन्दर है, दूसरा कुरूप । अधिक क्या, एक ही माता के उदर से उत्पन्न हुए और एक ही परिस्थिति में पले हुए दो बालकों में से एक धनी हो जाता है, दूसरा निर्धन रह जाता है। एक मूर्ख रह जाता है, दूसरा विद्वान हो जाता है। यह विषमता, यह विचित्रता, और यह असमानता अकारण नहीं हो सकती। उसका कुछ न कुछ कारण अवश्य होना चाहिये और वह कारण दूसरा कुछ नहीं कर्म ही है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्म के बिना सुख-दुखः भी नहीं हो सकते। संसार में सुख और दुःख प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। दो व्यक्ति जो कि समान स्थिति में रहते हैं, उनमें भी देखा जाता है कि एक सुखी है और दूसरा दुखी रहता है। आखिर इस सुख दुःख का कारण कोई तो अवश्य होना ही चाहिये और वह कारण कर्म ही हो सकता है। प्रश्न किया जा सकता है, कि सुख-दुःख कारण तो इस लोक में प्रत्यक्ष ही है, उसके लिये कर्म मामने को आवश्यकता ही क्या? जिसके पास वस्त्र मिल जाने पर सुखानुभूति होती है। जिसके पास भोजन नहीं है, उसे भोजन मिल जाने पर सुख का अनुभव होता है। इसी प्रकार मान और सम्मान भी सुख के कारण बन जाते हैं। इसके विपरीत भौतिक साधनों के अभाव में मनुष्य दुःख का अनुभव करने लगता है. अत: भौतिक वस्तुओं के सदभाव सुख और असद्भाव से दुःख प्रत्यक्ष देखा जाता है। फिर उस सुख-दुःख के कारण रूप में अदृश्यभूत कर्म की कल्पना क्यों की जाय? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया गया है कि सुख एवं दुःख के बाह्य-दृष्ट साधनों से भी परे हमें सुख-दुःख के कारणों की खोज इसलिये करनी पड़ती है कि सुख-दुःख की समान सामग्री प्राप्त होने पर भी मनुष्यों के सुख-दुःख में अन्तर देखा जाता है। एक व्यक्ति सुख के कारण प्राप्त करने पर भी सुखी नहीं रहता और दूसरा व्यक्ति दुःख के साधन मिलने पर भी सुखी रहता है। अतः बाह्य वस्तुओं के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा किसी आंतरिक कारण से ही इसका समाधान किया जा सकता है। एक व्यक्ति को जीवन में सुख के कारण प्राप्त होते हैं और दूसरे को दुःख के कारण । इसका भी कोई नियामक होना चाहिये और वह कर्म ही हो सकता है। कर्म के अस्तित्व में एक यह भी तर्क दिया जाता है कि दान आदि क्रिया फलवती होती है क्योंकि वह चेतन के द्वारा की जाती है। जो क्रिया चेतन के द्वारा की जाती है वह अवश्यमेव फलवती होती है। जैसे, कृषि आदि। दान आदि क्रिया भी चेतनकृत होने से फलवती होनी चाहिये । दान आदि क्रिया का फल शुभ कर्म के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता। जिस प्रकार अध्ययन क्रिया का फल ज्ञान संचय होता है, उसी प्रकार कर्म के फल सुख-दुःख आदि ही होते हैं। कर्म की मूर्तता जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार द्रव्य कर्म को मूर्त माना गया है। जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श यह चार गुण हों वह पदार्थ मूर्त होता है। पुद्गल में ये चारों गुण विद्यमान हैं । अतः छः द्रव्यों में पुद्गल को मूर्त द्रव्य माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य कर्म पुद्गलजन्य है, अतः मूर्त है। कारण यदि मूर्त है तो उसका कार्य भी मूर्त ही होता है। जैसे मिट्टी एक मूर्त उपादान कारण है तो उसका कार्य घट भी मूर्त ही होता है। कारण के अनुसार कार्य ही होता है। कारण मूर्त है तो कार्य भी मूर्त ही होगा और यदि कारण अमूर्त है तो कार्य भी अमूर्त ही होगा। वी. नि. सं. २५०३ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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