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________________ पूवोक्त उदाहरण एवं विवेचन से निष्कर्ष यह रहा है कि प्रत्येक पदार्थ में नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, सांतताअनन्तता, सद असद् आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं । उनको हम एक अपेक्षा से समझ सकते हैं । इस अपेक्षा दृष्टि को जैन दर्शन में "नय" कहते हैं। नयवाद-एक चिंतन अनेकान्त का आधार नयवाद है। नय का तात्पर्य है 'वस्तु के स्वरूप को सापेक्ष दृष्टि से देखना, परखना और वस्तु में अनन्त गुण धर्मों की सत्ता को अनेक दृष्टियों से, अनेक अपेक्षाओं से समझना । नयों में वस्तु में स्थित धर्मों को समझने की समग्र दृष्टियों का अन्तर्भाव हो जाता है । जैसे फल में आकार भी है, रूप भी है, गन्ध भी है तथा अन्य अनेक धर्म भी हैं। जब हम उस फल को आकार-प्रकार की दृष्टि से देखते हैं तो हमें वह गोल, त्रिकोण अथवा अन्य किसी आकार में दृष्टिगोचर होगा । इसी तरह अन्य धर्मों की दृष्टि से उसको हम देखेंगे तो वह वैसा ही दिखाई देगा। इस प्रकार ये समग्र दृष्टियाँ नयवाद के अन्तर्गत आ जाती हैं। प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों को ग्रहण करता है और नय एक धर्म का ग्राहक है । नय एक धर्म ग्रहण करता हुवा भी इतर धर्मों का निषेध नहीं करता है। यदि निषेध करता है तो वह नय नहीं है दुर्नय है। 1 स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश है। आगमों में सात नयों का उल्लेख है। वे इस प्रकार हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवंभूत ।93 आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है कि वचन के जितने प्रकार हैं या मार्ग हो सकते हैं नय के भी उतने ही भेद हैं । इस कथन के आधार पर नय के प्रकार भी अनन्त होते हैं क्योंकि वस्तुगत धर्म को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त हैं तथापि मौटे तौर पर उन सबका समावेश सात नयों में हो जाता है। यहाँ पर सप्त नयों पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है: १. नैगम नय--गुण और गणी, अवयव और अवयवी, क्रिया और कारक आदि में भेद की और अभेद की विवक्षा करना नैगम नय ३०. अर्थस्यानेकरूपस्या धी प्रमाणं तदर्शधी। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नय : तन्निराकृतिः ।। ३१. स्वामीप्रेता दशांदितरांशा पलायी पुनर्नयामांसा -प्रमाणनय तत्वालोक ३२. स्याद्वाद सकलादेशो नयो विकलादेश-लधीयस्ययः ३।६।६२।। ३३. (क) अनुयोग द्वारसूत्र १५६ (ख) स्थानांग सूत्र ७१५५२ (ग) तत्वार्थ राजवार्तिक १।३३ ३४. जावइयाववणवहा ताव इया चेव होंति नय वाया जावइयाणय वाया तावइया चेव परस मया ।। -सन्मति तर्क प्रकरण ३१४७ का विषय है। इस प्रकार गुण और गुणी कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं। इस बात को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि भेद काग्रहण करते समय अभेद को गौण समझना और अभेद का ग्रहण करते समय भेद गौण समझना और अभेद को प्रधान समझना नेगम नय है। २. संग्रह नय--सामान्य या अभेद का ग्रहण करने वाली दृष्टि अर्थात् स्वजाति के विरोधी के बिना समग्र पदार्थों का एकत्व में संग्रह करने वाला नय संग्रह नय कहलाता है। यह प्रत्यक्ष सचाई है कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । यह नय सामान्य धर्म को ग्रहण करता है, विशेष धर्म की उपेक्षा भाव रखता है। ३. व्यवहार नय--संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण व्यवहार का विषय है ।16 संग्रह नय केवल सामान्य को ग्रहण करता है किन्तु व्यवहार नय सामान्य का भेद पूर्वक ग्रहण करता है । अभेदपूर्वक नहीं। ४. ऋजुसूत्र नय-भेद अथवा पर्याय की विविक्षा से कथन करना ऋजुसूत्र नय है। यह नय भत भविष्य की उपेक्षा करके मात्र वर्तमान का ग्रहण करता है । क्योंकि वर्तमान काल में ही पर्याय की अवस्थिति होती है। प्रस्तुत नय प्रत्येक पदार्थ में भेद ही भेद देखता है। ५. शब्द नय-काल, कारक, लिंग, संख्या आदि भेद से अर्थ भेद मानना शब्द नय का विषय है । यह नय एक ही पदार्थ में काल, कारक आदि भेद से भेद मानता है। ६. समभिरूढ़-शब्द नय काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से अर्थ में भेद मानता है। पर वह एक लिंग वाले एकार्थक शब्दों में किसी प्रकार भेद नहीं मानता। पर यह नय व्युत्पत्ति मूलक शब्द भेद से अर्थ भेद मानता है। क्योंकि प्रत्येक शब्द की अपनी अपनी व्युत्पत्ति है । उसके अनुसार उसका अर्थ भिन्न-भिन्न होता है। ७. एवंभूत नय-समभिरूढ़ नय व्युत्पत्ति से अर्थभेद है, ऐसा मानता है । किन्तु प्रस्तुत नय जब व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ घटित होता है तभी उस शब्द का अर्थ स्वीकार करता है। इन सात नयों के भी दो अवान्तर भेद हैं, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नय में नैगम, संग्रह और व्यवहार तथा ३५ अन्योन्य गुण भूतैक भेदाभेदमरूपणात् । . नैगभोऽर्थान्तर रत्वोक्तो नैगमा मास इष्यते ।। -लघीयस्यय २।५।३२ ३६. अतो विधिपूर्वक भव हरणं व्यवहार। -तत्वार्थराजवार्तिक १।३३।६ ३७. भेदं प्राधान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुसूत्र नयो मतः । -लधीयस्त्रय ३।६७१ ३८. समास्तु द्वि भेद-द्रव्याथिक पयार्थिकश्च । -प्रमाणनय तत्वालोक ७।४।५ ३२ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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