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________________ पद-विहीन है, तब तक मैं तुम्हारी इन चीजों को कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। इन चीजों को तुम मुझे नहीं, उन्हें दो जिन्हें इनकी आवश्यकता है। मैंने इन्हें पाने के लिए संसार नहीं छोड़ा था, और यों महावीर और भी महावीर होते। प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी मानसिक परिपक्वता के अनुसार महावीर को, उनकी मानवता को उनकी विश्वबन्धुता को परखा है, पर पूर्णतया किसने परखा है? यह कहना आशा और आकांक्षा की पूर्ति से भी कहीं अधिक कष्ट साध्य है। महावीर ने भक्तों से अपने लिए इतनी श्रद्धा और निष्ठा कदापि नहीं चाही कि उनका व्यक्तित्व और विचार स्वातंत्र्य उनमें केन्द्रित या स्वयं में कुंठित हो जावे । उन्होंने यह भी नहीं चाहा कि लोग उनकी मूर्तियाँ बनावें, उन्हें प्रतिष्ठित कराकर मन्दिरों में प्रतिदिन पूजें, उनकी जय जयकार करें, उनके जीवन और सिद्धान्तों पर बढ़िया भाषण देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें. पर महावीर ने यह अवश्य चाहा होगा कि सही शब्दों में मेरे अनुयायी-अनुचर-अनुयायी वे ही व्यक्ति कहलावेंगे, जो मेरे सदृश अपने जीवन से आचरित और व्यवहृत होंगे। महावीर ने अपने अनुयायियों से उच्च अधिकारी बनने, शान शौकत, रौब-दाब से रहने, येन केन प्रकारेण सम्मानित होने की आशा नहीं रखी होगी, पर अपने मतानुयायियों से आज्ञा प्रधानी के स्थान में परीक्षा-प्रधानी बनने की, अन्य के शिक्षण के स्थान में स्वयं के शिक्षण की, अन्तरंग के दर्पण में आत्म-निर्माण के निरीक्षण और परीक्षण की, समय-समय पर सही दिशा में विचार-हृदय-परिस्थिति में परिवर्तन कर दैनिक जीवन के धरातल में अभ्युत्थान की आशा अवश्य रखी होगी। विचार के इस बिन्दु से महावीर के आधुनिक अर्वाचीन अनुयायियों को अपने उत्तरदायित्व का बोध होना चाहिए। कभी उनकी भांति घर छोड़ कर बन में जाने का, श्रद्धा-विवेक-क्रिया मूलक श्रावक बनकर, लोक धर्म का निर्वाह करने के उपरान्त मुनि बनने का विचार भी करना चाहिए। जीव-दया की भावना को दृष्टि में रखते हुए चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ), पाँच पाप (हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील-परिग्रह), सप्त व्यसन (जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पान करना, वैश्या सेवन करना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन करना, शिकार खेलना) से बचना चाहिए । जो न्याय को छोड़ अन्याय की ओर भागे, जो भक्ष्य को छोड़कर अभक्ष्य की ओर बढ़े, जो सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व अपना ले, वे महावीर के अनुयायी नहीं हैं । जिन महावीर की महिमा गणधर ही नहीं कह सके, उसे हम क्या कह सकते हैं। श्रद्धापूर्वक प्रणाम मात्र कर सकते हैं। महावीर की वाणी तूने जीवन यूंज गवायो बस खायो और खुटायो माया को फंदा लइ लेगो एक दन थारा प्राण । महावीर की वाणी सुनले तो हुइ जावे कल्याण ।। धोलो और कालो धन तुने दोई हाथ से लूट्यो धरम का नाम पे एक पइसो भी छाती से नी छुट्यो साथें कई लइ जावेगा ? करतो जा थोड़ो दान । महावीर की वाणी सुनले तो हुई जावे कल्याण ।। कैलाश 'तरल' पाड़ोसी तो मर्यो भूख से पन पीयो घी तूने किस्तर थारो मन मानीग्यो क्यों दया करी नी तूने ? भूली ग्यो कई थारो हिवड़ो तो है दया की खान। महावीर की वाणी सुनले तो हइ जावे कल्याण ।। अपनी मतलब सीधी करने तने फिरको अलग चलायो बीज फूट का तो बोया पन फल लगने नी पायो लई एकता को सन्देशो यो दन आयो आज महान। महावीर की वाणी सुनले तो हुई जावे कल्याण ।। वी.नि.सं. २५०३ १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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