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________________ वस्तुस्वरूप की विराटता का निरूपण करने के लिए महावीर ने उसकी अनेक विशेषताओं को स्पष्ट किया १. वस्तु में अनेक गुण हैं । जैसे चेतन वस्तु में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि और पुद्गल वस्तु में रूप, रस, गन्ध स्पर्श आदि । २. वह अनन्तधर्मा है । संसार में अनन्त वस्तुओं की विद्यमानता के कारण प्रत्येक वस्तु की अनन्त सापेक्षताएं हैं । एक अपेक्षा से वस्तु कुछ है, दूसरी अपेक्षा से कुछ और । इस प्रकार उसके अनेक अन्त या धर्म हैं । एक ही व्यक्ति पिता की अपेक्षा से पुत्र, पुत्र की अपेक्षा से पिता, बहिन की अपेक्षा से भाई, पत्नी की अपेक्षा से पति, भानजे की अपेक्षा से मामा और पता नहीं क्या-क्या होता है। महावीर को वस्तु के इस अनेकान्त स्वरूप का बहुत गहरा बोध है । इसे इतना आधारभत माना गया कि परवर्ती कालों में महावीर के सम्पूर्ण चिन्तन और दर्शन को अनेकान्त वाद के नाम से ही अभिहित किया गया। ३. वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। प्रतिक्षण उसमें कुछ नया जुड़ता है, प्रतिक्षण उसमें से कुछ घट' जाता है, फिर भी कुछ है जो प्रतिक्षण स्थिर रहता है। नदी के किनारे खड़े हए हमारे समक्ष हर क्षण वही नदी नहीं होती। कुछ पानी नया आ जाता है, कुछ पुराना बहकर आगे निकल जाता है और इस प्रकार हर क्षण एक नई नदी होती है फिर भी नदी वहीं होती है--उसकी संज्ञा भी वही बनी रहती है। इस निबन्ध को आरम्भ करते समय निबन्धकार जो व्यक्ति था निबन्ध की समाप्ति तक वह वहीं रहने वाला नहीं । बल्कि एक-एक पंक्ति के साथ--एक-एक शब्द के साथ वह बदलता गया है। फिर भी निबन्ध की समाप्ति पर यह निबन्ध उसी का है जिसने इसे आरम्भ किया था। ४. वस्तु स्वतन्त्र है। वह अपने परिणामी स्वभाव के अनुसार स्वतः परिवर्तित होती है । इस प्रकार वस्तु अनेक गुण, अनन्त धर्म, उत्पाद-व्ययघ्रौव्ययुक्त और स्वतंत्र है । वस्तु स्वरूप का यह सम्यक् बोध महावीर के चिन्तन की बुनियाद है । सभी वस्तुएं चाहे वे जड़ हों या चेतन, इतनी विराट हैं कि हम उन्हें उनकी सम्पूर्णता में युगपत् देख ही नहीं सकते । आईसवर्ग पानी की सतह पर जितना दिखता है, उससे कहीं अधिक बड़ा होता है-उसका अधिकांश सतह के नीचे होता है और दिखाई नहीं देता है। दिखाई देने वाले आकार के आधार पर उसे टक्कर मारने वाला जहाज उससे टकराकर खण्ड-खण्ड हो सकता है । यही हाल सभी वस्तुओं का है, वे आईसवर्ग की तरह ही होती हैं। एक समय में हम वस्तु के एक ही पहलू को देख रहे होते हैं। हम खण्ड को देखते हैं । खण्ड को देखना समन की चेतना नहीं है। एक ऐसे युग में जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच भी समानता की बात सोचना सम्भव नहीं था। महावीर ने सभी पदार्थों को समान रूप से विराट और स्वतंत्र घोषित किया । उन्होंने अपनी घोषणा को कार्य रूप में परिणत किया। उनके चतुर्विध संघ में सभी वर्ण के लोग समान भाव से सम्मिलित हुए और सभी ने समान भाव से जीवन को लिया। ___ वस्तु को हम जितना भी देख और जान पाते हैं उसका वर्णन उससे भी कम कर पाते हैं । हमारी भाषा हमारी दृष्टि की तुलना में और भी असमर्थ है । वह पदार्थों को अपूर्ण और अयथार्थ रूप में लक्षित करती है । नाना धर्मात्मक वस्तु की विराट सत्ता के समक्ष हमारी दृष्टि को सूचित करने वाली भाषा बहुत बौनी है । वह एक टूटी नाव के सहारे समुद्र के किनारे खड़े होने की स्थिति है। वस्तु की तुलना में भाषा की इस असमर्थता को स्वीकार करना ही स्थाद्वाद तक पहुंचना है। इसलिये स्याद्वाद अनेकान्त का ही भाषिक प्रतिनिधि है। विचार में जी अनेकान्त हैं । वाणी में यही स्वाद्वाद है। इस प्रकार भाषा और अभिव्यक्ति की एक निर्दोष पद्धति के रूप में उसकी महत्ता है। स्यात् शब्द शायद के अर्थ में नहीं है। स्थात् का अर्थ शायद हो तब तो वस्तु के स्वरूप कथन में सुनिश्चितता नहीं रही। शायद ऐसा है, शायद वैसा है-यह तो बगले झांकना हुआ। पालि और प्राकृत में स्यात् शब्द का ध्वनिविकास से प्राप्त रूप 'सिया' वस्तु के सुनिश्चित भेदों के साथ प्रयोग में आया है । किसी वस्तु के धर्मकथन के समय स्यात् शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि यह धर्म निश्चय ही ऐसा है लेकिन अन्य सापेक्षताओं में सुनिश्चित रूप से सम्बन्धित वस्तु के अन्य धर्म भी हैं । इन धर्मों को कहा नहीं जा रहा है क्योंकि शब्द सभी धर्मों को युगपत् संकेतित नहीं कर सकते यानी स्यात् शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है । इस प्रकार वह सम्भावना, अनिश्चय, भ्रम आदि का द्योतक नहीं, सूनिश्चितता और सत्य का प्रतीक है। वह अनेकान्त-चिन्तन का वाहक है। यही अनेकान्त-चिन्तन आचार के क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में प्रकट हुआ । इस प्रकार अनेकान्त महावीर के उपदेशों की आधार शिला है। चिन्तन, वाणी, आचार और समाज व्यवस्था सभी जगह उसका उपपोग हैं । लेकिन महावीर ने उसे हवा में से ग्रहण नहीं किया। उनके arरा वस्तु स्वरूप को वैज्ञानिक ढंग से समझ लेने का एक सहज परिणाम है वह। वस्तु-स्वरूप की उक्त जानकारी के फलस्वरूप ही महावीर उपादान और निमित्त की परिकल्पना तक पहुँचे । वस्तु स्वयम अपने विकास या ह्रास का मूल कारण और आधारभूत सामग्री है-वह उपादान है। अन्य वस्तु उसकी सहायक मात्र है, वह उसके लिये निमित्त भर बन सकती है। इस प्रकार वस्तु अपने विकास या ह्रास के लिए स्वयं उत्तरदायी है । एक वस्तु दूसरी वस्तु के विकास या ह्रास के लिए उपादान नहीं बन सकती । सबकों अपने पांवों स्वयं चलना है । कोई किसी के लिए चल नही सकता वी.नि.सं. २५०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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