SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "जैसे व्रण या फोड़े को दबा कर पीव को निकाल देने से शान्ति मिलती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से शान्ति मिलती है । इसमें दोष कैसे हो सकता है ? जैसे भेड़ बिना हिलाये शान्तभाव से पानी पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ शान्त भाव से किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना समागम किया जाय, उसमें दोष कैसे हो सकता है ? जैसे 'कपिंजल' नाम की चिड़िया आकाश में रहकर बिना हिले-डुले जल पी लेती है, वैसे ही समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ अनासक्त भाव से समागम किया जाए तो उसमें दोष कैसे हो सकता है ? भगवान महावीर ने इन कुतों को ध्यान में रखा और वक्रजड़ मुनि किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डालते हैं, इस ओर ध्यान दिया तो उन्हें ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत का रूप देने की आवश्यकता हुई। इसलिए स्तुतिकार ने कहा है___ "से वारिया इत्थि सराइमंत" : सूत्रकृतांग, १/६/२८ अर्थात, भगवान ने स्त्री और रात्रि भोजन का निवारण किया । यह स्तुति वाक्य इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की विशेष व्याख्या, व्यवस्था या योजना की थी। ___अब्रह्मचर्य को फोड़े के पीब निकालने आदि के समान बताया जाता था, उसके लिए भगवान ने कहा-"कोई मनुष्य तलवार से किसी का सिर काट शान्ति का अनुभव करे तो क्या वह दोषी नहीं है ?" कोई मनुष्य किसी धनी के खजाने से अनासक्त-भाव से बहुमूल्य रत्नों को चुराए तो क्या वह दोषी नहीं होगा? कोई मनुष्य चुपचाप शान्त-भाव से जहर की घंट पी कर बैठ जावे तो क्या वह विष व्याप्त नहीं होगा? दूसरे का सिर काटने वाला, दूसरों के रत्न' चुराने वाला और जहर की घंट पीने वाला वस्तुत: शान्त या अनासक्त नहीं होता, वैसे ही अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला शान्त या अनासक्त नहीं हो सकता। जो पार्श्वस्थ श्रमण अनासक्ति का नाम ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करते हैं, वे काम-भोगों में अत्यंत आसक्त हैं 110 ___अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक मानने की ओर श्रमणों का झुकाव होता जा रहा था, उस समय उन्हें ब्रह्मचर्य की विशेष व्यवस्था देने की आवश्यकता थी । इस अनुकूल परिषह से श्रमणों को बचाना आवश्यक था। उस स्थिति में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को बहुत महत्त्व दिया और उसकी सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था दी : देखिये-उत्तराध्ययन १६ और ३२वां अध्ययन । २. सामायिक और छेदोपस्थापनीय-भगवान् पार्श्व के समय सामायिक चारित्र था और भगवान महावीर ने छेदोपस्थापनीयचारित्र का प्रवर्तन किया । वास्तविक दृष्टि से चारित्र एक सामायिक ही है । चारित्र का अर्थ है "समता की आराधना।" विषमतापूर्ण प्रवृत्तियां त्यक्त होती हैं, तब सामायिक चारित्र प्राप्त होता है । यह निर्विशेषण या निर्विभाग है। भगवान पार्श्व ने चारित्र के विभाग नहीं किए, उसे विस्तार से नहीं समझाया । सम्भव है उन्हें इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। भगवान् महावीर के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित था, इसलिए उन्होंने सामायिक को छेदोपस्थापनीय का रूप दिया। इस चारित्र को स्वीकार करने वाले को व्यक्ति या विभागशः महाव्रतों को स्वीकार कराया जाता है। छेद का अर्थ 'विभाग' है। भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के निविभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक चारित्र बना दिया और वही छेदोपस्थापनीय के नाम से प्रचलित हुआ। भगवान् ने चारित्र के तेरह मुख्य विभाग किये थे। पूज्यपाद ने भगवान् महावीर को पूर्व तीर्थंकरों द्वारा अनुपदिष्ट तेरह प्रकार के चारित्र-उपदेष्टा के रूप में नमस्कार किया है तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः पंचेर्यादि समाश्रयाः समितयः पंच व्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परराचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयं ।।12 भगवती से ज्ञात होता है कि जो चातुर्याम-धर्म का पालन करते थे, उन मुनियों के चारित्र को "सामायिक' कहा जाता था और जो मुनि सामायिक-चारित्र की प्राचीन परंपरा को छोड़कर पंचयाम-धर्म में प्रबजित हुए उनके चारित्र को "छेदोपस्थापनीय" कहा गया ।13 भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व की परंपरा का सम्मान करने अथवा अपने निरूपण के साथ उसका सामंजस्य बिठाने के लिए दोनों व्यवस्थाएं की--प्रारंभ में अल्पकालीन निविभाग : सामायिक चारित्र को मान्यता दी,14 दीर्घकाल के लिए विभागात्मक : छेदोपस्थापनीय : चारित्र की व्यवस्था की।16 किया है ११. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६७ १२. चारित्रभक्ति ७ १३. भगवती २५/७/७८६ गाथा १, २ सामाइयंमि उ कए, चाउज्जामं अणुवंर घम्म । तिविहेणं फासयंतो, सामाइय संजमो स खलु ।। छेत्रणं उ परियांग, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्ममि पंच जामे, छेदोपट्टावणो स खलु ।। १४. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६८ १५. वही गाथा १२७४ ८. सूत्रकृतांग-१/३/४/१० से १२ ९. सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा-५३-५५ १०. सूत्रकृतांग १/३/४/१३ राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy