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________________ १९३९ में तथा तृतीय संवत् १९६१ में। संवत् १९६१ का चातुर्मास गुरु देव का कुक्षी में अन्तिम चातुर्मास था। इस चातुर्मास में गुरुवरने "प्राकृत व्याकृति व्याकरण", "प्राकृत शब्द रूपावली", "दीपमालिका देववन्दन" की रचना की। ___इन चातुर्मासों के अतिरिक्त गुरुवर ने कुक्षी में निम्न महोत्सव भी आयोजित करवाए----- १. संवत् १९३५ में वैशाख सुदी ७ शनिवार को २१ जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा करके उनकी स्थापना पहले से बने हुए शान्तिनाथजी के बड़े मन्दिर में करवाई। २. संवत् १९४७ में नयापुरा मोहल्ले में स्थित आदिनाथ मन्दिर में ७५ प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा व स्थापना करवाई। ३. संवत् १९५० में माघ शुक्ल द्वितीया सोमवार को तालनपुर तीर्थ में संवत् १९२८ में चमत्कारिक रूप से प्रकटित प्रतिमा जो गाड़ी पार्श्वनाथजी की है, की अन्य ५० प्रतिमाओं से साथ प्राणप्रतिष्ठा करके स्थापना करवाई। ४. संवत् १९५४ में पौषधशाला में निर्मित ज्ञानमन्दिर की प्रतिष्ठा गुरुदेव द्वारा की गई। यही ज्ञानमन्दिर वर्तमान में गुरु मन्दिर होकर इसमें गुरुदेव की मनोहारी प्रतिमा विराजित है। ५. संवत् १९६१ के मार्गशीर्ष माह की शुक्ल पंचमी को ७ प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा पूज्य गुरुदेव ने की। इन प्राणप्रतिष्ठा, अञ्जनशलाका, ध्वजदण्ड एवं कलश स्थापना महोत्सवों के अतिरिक्त गुरुदेवधी के द्वारा कुक्षी में निम्न दीक्षा महोत्सवों का भी आयोजन करवाया गया था:-- १. संवत् १९३९ में मार्गशीर्ष माह की शक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मोहन विजयजी की बड़ी दीक्षा महोत्सव । २. संवत् १९५४ में मुनि श्री केशरविजयजी एवं हर्षविजयजी का दीक्षा महोत्सव । कुक्षी श्रीसंघ के आग्रह पर ही गुरुदेवजी ने अष्टान्हिका व्याख्यान का बालाबबोध रूपान्तर भी किया है जिससे आज तक श्रीसंघ लाभान्वित हो रहा है। कुक्षी श्रीसंघ पर गुरुवर ने संवत् १९५१ में चमत्कारिक उपकार कर के श्रीसंघ को अग्नि प्रकोप से बचाया था। संवत् १९५१ की चैत्री ओली आराधन के अवसर पर गुरुदेव किसी दिन ध्यानमग्न थे। इसी अवस्था में गुरुदेव ने देखा कि मिति वैशाख बदी ७ को कुक्षी के अम्बाराम ब्राह्मण के घर से अग्नि प्रकोप प्रारम्भ होगा और करीब १५०० मकानों का विनाश करेगा। गुरुदेव ने अपने परम श्रावकों से इस संबंध में भविष्यवाणी कहीं। निश्चित दिन अर्थात् वैशाख बदी ७ संवत् १९५१ को गुरुदेव राजगढ़ में विराजित थे। वहां पर उसी दिन सेठ थी चुन्नीलालजी खजान्ची को गुरुदेव ने वृत्तान्त कहा जिस पर से खजांची सेठ ने तार करके कुक्षी से समाचार बुलवाये तो सारा वृत्तान्त ही सत्य पाया। गुरुदेव की इस भविष्यवाणी के कारण से कुक्षी के अनेक भक्त श्रावकों का बहुत कम नुकसान हुआ। बी.नि.सं. २५०३ परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब ने अपने परम श्रावक कुक्षी के सेठ श्री माणकचन्दजी खूटवाला को तीर्थ पालीताणा में त्रिस्तुतिक समाज के साधुओं एवं श्रावकों के ठहरने हेतु स्थानाभाव की पूर्ति करने हेतु प्रेरित किया। इसी प्रेरणा से सेठ माणकचन्दजी ने पालीताणा में संवत् १९६१ में धर्मशाला का निर्माण करवाया। इस धर्मशाला को प्रथम त्रिस्तुतिक धर्मशाला होने का गौरव है । इस धर्मशाला को इसके वर्तमान रूप "चम्पा निवास" में परिवर्तित करने का श्रेय माणकचन्दजी के सुपूत्र गुरुभक्त श्री चम्पालालजी ने लिया। गुरुदेव के समय उनके परम श्रावक सेठ आसाजी, रायचन्दजी, माणकचन्दजी, देवचन्दजी, रिषभदासजी पुराणिक आदि थे। ये सभी श्रावक आध्यात्मिक, नैतिक, आर्थिक रूप से संपन्न रहे। इनमें से देवचन्दजी व रायचन्दजी के कई स्तवन, चैत्यवन्दन स्ततियां आदि प्रचलित हैं। कुक्षी स्थित शान्तिनाथजी के बड़े मंदिर, नयापुरा मोहल्ले का श्री आदिनाथजी का मन्दिर, शान्तिनाथजी का छोटा मन्दिर व तालनपुर के मन्दिरों में गुरुदेव के द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएं विराजित हैं। गुरुदेव के पश्चात् उनके शिष्यों के द्वारा कुक्षी में निम्न प्रतिष्ठा, मूर्ति स्थापना व दीक्षा महोत्सव आयोजित करवाए गये१. संवत् १९४७ की बैशाख सुदी ३ को महावीर स्वामी के मंदिर में मुनि धनविजयजी (धनचन्द्रसूरीजी) द्वारा मूर्तियों को प्राण प्रतिष्ठा, अन्जनशलाका, ध्वजदण्ड व कलशारोहण करवाया गया। २. संवत् १९८० की वसंत पंचमी को मुनि अमृतविजयजी द्वारा मुनि चतुरविजयजी को दीक्षित किया गया । ३. संवत् १९८२ की ज्येष्ठ सुदी एकादशी को सीमन्धर स्वामी के मन्दिर "रेवा विहार" की प्रतिष्ठा व मूर्ति स्थापना श्री यति चन्द्रविजयजी द्वारा करवाई गई। ४. संवत् १९८३ में मुनि यतीन्द्रविजयजी द्वारा मुनि प्रेमविजयजी को दीक्षित किया गया। ५. संवत् २०१७ की माह सुदी १४ को तालनपुर तीर्थ में गुरुदेव की प्रतिमा मुनि श्री देवेन्द्रविजयजी के सान्निध्य में स्थापित करवाई गई। ६. संवत् २०२३ को माघ शुक्ला ६ को वर्तमान आचार्य श्री द्वारा सभी मन्दिरों के ध्वजदण्डों की प्रतिष्ठा तथा साध्वी चन्दनाश्रीजी की दीक्षा समारोह आयोजित करवाया गया। ७. संवत् २०२८ में मुनि श्री लक्ष्मणविजयजी ने साध्वीश्री अनन्त गुणाश्रीजी को दीक्षित किया । कुक्षी को शान्त स्वभावी सरल हृदय उपाध्यायजी मोहनविजयजी व साध्वी श्री कंचनश्रीजी का अन्तिम संस्कार स्थल होने का भी सोभाग्य मिला है। इन दोनों के अंतिम संस्कार स्थल पर गरिमामय समाधियां कुक्षी से तालनपुर जाने वाले मार्ग पर निर्मित की हुई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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