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________________ संवत १९२३ का यह घाणेराव चातुर्मास इतिहास का एक अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया है। विगत कुछ वर्षों से श्रीमद् जो कुछ अवलोकन कर रहे थे उससे उनकी आत्मा छटपटा रही थी । पूरा यति समाज शिथिलाचार के गहरे गर्त में समा गया था। भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं थी । त्याग के आवरण में लोग मौज मना रहे थे। धर्म और धार्मिक आचार वाह्याडाम्बरों तक सीमित हो चुके थे। यतियों का मानो एक साम्राज्य ही निर्माण हो गया था । वैराग्यरंगा परवंचनाय, धर्मोपदेशो जनरंजनाय' यह सूक्ति सत्य सिद्ध हो रही थी । यति केवल बाह्यलिंगी बन गये थे, भावलिंग से उनका कोई सरोकार नहीं था। वेष उपजीविका का साधन बन गया था वैभव, विलास सीमा पार कर गये थे। समूचा यतिवर्ग मंत्रतंत्र में लीन था' पालखी-चामर-छड़ी-सैनिक आदि परिकर व भांग गांजा आदि व्यसन, शृंगार, जुआ, परिग्रह आदि के साथ घुल मिल गया था। उपरोक्त सब वस्तुएं यतिजीवन का एक अविभाज्य भाग बन गई थीं। यतिपरंपरा की यह गादी बड़ी आरामदेह व सुरक्षित थी पर श्रीमद् की आत्मा ऐसे वातावरण में सांस लेने में भी असमर्थ थी, उनका दम घुट रहा था क्योंकि वे वास्तव में जैनागम के बहुमूल्य शब्दों के पुष्ट धरातल पर खड़े होने का होंसला रखते थे। वे सही माने में श्रमण जीवन जीना चाहते थे अतः अवसर की ताक में थे और वह अवसर उन्हें प्राप्त हुवा इसी चातुर्मास के पर्दूषण के पावन दिनों में। श्रीपूज्य धरणेंद्रसूरिजी की सेवा में एक इत्र विक्रेता उपस्थित हुवा और उसने बढ़िया से बढ़िया इत्र प्रस्तुत किया । संयोग की बात कि उसी समय धरणेंद्रसूरिजी ने श्रीमद् से इत्र की परख करने के लिए कहा और श्रीमद् को क्रान्ति के लिए अनुकूल अवसर प्राप्त हो गया। उन्होंने जो तपाक से उतर दिया वह इतिहास की एक अनमोल धरोहर बन गया। श्रीमद् का उत्तर था - एक साधु के लिए यह इत्र चाहे जितना कीमती हो पर गधे के मूत से अधिक कीमत नहीं रखता । श्रीमद् का यह उत्तर श्रीपूज्य के साथ साथ सारे यति समाज के लिए एक खुली चुनौती थी । इस चुनौती ने समुची यति संस्था की नींव जड़ मूल से हिला दी, सारे यति समाज को अपनी शुद्धि के लिए कलम नामे की आग में अपने आपको तपाना पड़ा, इस विश्वपुरुष के चरणों में सिर झुकाना पड़ा। इत्र के इस वाद विवाद ने उग्र स्वरूप धारण कर लिया और श्रीमद् चातुर्मास की समाप्ति के बाद गुरुदेव के पास आहोर चले आये, तत्कालीन परिस्थिति से वे परिचित तो थे ही। श्रीमद् की बातों में उन्हें सच्चाई महसूस हुई और श्रीमद् की योग्यता भी उनसे छिपी न रही फलस्वरूप संवत् १९२४ की वैशाख शुक्ला पंचमी को गुरुदेव ने आपको पूज्य पद प्रदान किया और श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि नाम रखा । आहोर के ठाकुर ने छड़ी, चामर, पालखी आदि से आपका सत्कार किया। शंभुगढ़ के फतहसागरजी ने भी आपका पाटोत्सव किया और उदयपुर के राणा ने भी छड़ी चामरादि प्रदान कर श्रीमद् का सत्कार किया। ___संवत् १९२४ का श्रीमद् का जावरा चातुर्मास भी अविस्मरणीय रहा। आपकी प्रभावक प्रवचन शैली से जावरा के नवाब व दीवान प्रभावित हुए। श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरिजी भी ठिकाने पर आ गये। श्रीमद् द्वारा आलेखित कलमनामा उन्होंने अपने हस्ताक्षर से मंजूर किया । कलमनामे में उल्लिखित नौ शर्ते यतिसमाज के आचार शैथिल्य रोग का रामबाण इलाज थी । इस कलमनामे ने यति जीवन को आदर्श बना दिया और यतियों की तानाशाही समाप्त कर दी। श्रीमद् अपने इस महान कार्य से अमर बन गये। श्रमण जीवन कलमनामे की स्वीकृति के बाद श्रीमद् को लगा कि एक कार्य तो पूरा हो गया । अब श्रमण संस्था की निर्मिति की आवश्यकता थी। वे खुद एक श्रमण जीवन-महाव्रती जीवन जीना चाहते थे । श्री पूज्यपद का वैभव उन्हें परिग्रहपूर्ण महसूस हो रहा था अतः आपने संवत् १९२५ आषाढ़ शुक्ला १० को अपने श्री पूज्य पद का जावरा में त्याग किया और क्रियोद्धार करके सच्चा साधुत्व ग्रहण किय। । इसी वर्ष के खाचरोद चातुर्मास में आपने त्रिस्तुतिक सिद्धान्त को पुनः प्रकाशित किया । कलमनामे की स्वीकृति जितनी महत्वपूर्ण है । उतना ही महत्वपूर्ण है त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का पुन: प्रकाशन । इस सिद्धान्त ने लोगों को वीतराग और वीतरागता का उपासक बनाया। आत्मोद्धार में असमर्थ देवोपासना वंद करवादी । त्रिस्तुतिक सिद्धान्त की पुनः प्रतिष्ठा श्रीमद् के गहन संशोधनात्मक आगमिक अध्ययन का सुपरिणाम है। क्रियोद्धार के पश्चात् आपने अपने श्रामण्य को विशेष शुद्धि के लिए तपस्या की आग में तपाना शुरू किया । इस कसौटी में से पार होकर ही वह अपने शुद्ध रूप में दीप्तिमान होने वाला था। आत्मशुद्धि के लिए आपने सर्वप्रथम अभिग्रह धारण करना शुरू किया इन अभिग्रहों की पूर्ति में आपको कभी चार कभी छह और कभी सात दिन तक भी निराहार रहना पड़ता था। अभिग्रह के अलावा आप प्रति चातुर्मास में तीन चातुर्मासिक चतुर्दशी का बेला तथा संवत्सरों और दीपमालिका का तेला करते थे। बड़े कला का बेला करते थे, प्रतिमास की सुदी १० का एकासना करते थे और चैत्री और आसो मास की ओली करते थे। यह तपश्चर्या आपने जीवन भर दण्ड रूप से की। इसके अलावा मांगीतुंगी पर्वत के बीहड़ जंगल में आठ-आठ उपवासों की तपस्या के साथ नवकारमंत्र का जाप किया था। मांगीतुंगी के बीहड़ बन, चामुंडवन, स्वर्णगिरि पर्वत ये सब आपके तपस्या स्थान थे। ऐसे ही एकान्त और बीहड़ स्थानों में आपने अपने को तपस्या की आग में तपाकर शुद्ध किया और आप दीप्तिमान बने। ऐसे स्थानों में आप पर प्राणधातक संकट भी आये । किसी ने तीर छोड़े, कोई शेर सामने आया तो कोई तलवार लेकर मारने बी.मि. सं. २५०३/ख-२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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