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________________ श्री प्रकाश पुञ्ज यतीन्द्र आज से करीब ९५ वर्ष पहले की बात है जब आज की तरह का राज्य नहीं था वरन् अलग-अलग रियासत के अलग-अलग राजा थे। उत्तर प्रदेश का एक छोटा नगर धवलपुर था। इस धवलपुर नगर में श्रेष्ठिवर्ग श्री बृजलालजी काश्यप अपनी भार्या श्रीमती चम्पाकुंवर के साथ सानन्द समय व्यतीत करते थे । इन्हीं श्रेष्ठवर्ग की भार्या की कुक्षि से संवत् १९४० कार्तिक शुक्ला द्वितीया को एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ । विधि विधानानुसार आपका नामकरण संस्कार करके रामरत्न नाम दिया गया। धीरे-धीरे श्रेष्ठिवर्ग का पुष द्वितीया के चांद की तरह बढ़ने लगा । श्री रामरत्नजी ने अपनी अद्भुत ज्ञान शक्ति से ६-७ वर्ष की अल्पायु में ही प्रभु पूजन विधि, पंच कल्याणक, चौबीस तीर्थंकर भगवन्त एवं दशलक्षणादि पूजाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया। छोटी सी १० वर्ष की उम्र में ही आपके माता-पिता आपको संसार में बिलखता छोड़कर महाप्रयाण कर गये। तब निराधार अवस्था में आश्रय पाने हेतु आप भोपाल अपने मामाजी के घर चले गये। भोपाल की एक घटना है कि भोपाल में एक सर्राफ के घर पर उसकी अनुपस्थिति में उसके घर की खिड़की खुली हुई थी। जिसे देखकर वहां के लोग इस बारे में आपसी बातचीत कर रहे थे। तब आप भी वहीं खड़े-खड़े उनकी बातें सुन रहे थे इतने में ही अकस्मात आपकी नजर खिड़की की ओर गई। आपने देखा कि एक व्यक्ति अपनी पीठ पर गठरी लादे खिड़की से कूद कर भागने लगा । आप पूरी बात समझ गये और “चोर-चोर" चिल्लाते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़े। कुछ दूरी पर बड़े पुलिस वाले भी चोर को पकड़ने दौड़े परन्तु चोर भाग कर एकदम गायब हो गया । पुलिस वाले वापस लौट आये परन्तु आपने पीछा नहीं छोड़ा और उसके पीछे-पीछे दौड़ते चले गये। अकस्मात् चोर एक पत्थर की चोट खाकर गिर पड़ा। वह उठने की कोशिश करने लगा परन्तु आपने शीघ्र ही वहां पहुंच कर पत्थर की चोट से उसे निर्बल बना ५४ Jain Education International मुनिराज श्री लक्ष्मणविजयजी म. के शिष्य मुनि श्री लेखेन्द्रशेखर विजयजी दिया । दैवयोग से उस समय एक पुलिस अधिकारी सैर करने उधर आ निकले। श्री रामरत्नजी ने पूरी बात इन अधिकारी महोदय को बताकर चोर को उनके सुपुर्द किया। पुलिस अधिकारी उसे गिरफ्तार करके ले गये और उसे उचित दण्ड दिया । पोटली का सामान वापस सर्राफ के सुपुर्द किया। ऐसी अद्भुत शक्ति के धनी श्री रामरत्नजी थे । एक दिन नाटक देखकर घर देर से लौटने पर आपके मामाजी ने आपको खूब भला-बुरा कहा व अनेक उपालम्भ दिये । आपके आत्माभिमान को बड़ी ठेस पहुंची इस बात से जागृत होकर आपने मामाजी का घर छोड़ दिया व भोपाल से रवाना होकर उज्जैन गये। वहां श्री पार्श्व प्रभु के भक्तिपूर्वक दर्शन करके महेन्द्रपुर नगर पहुंचे। जहां श्रीमज्जैनाचार्यमद्विजेय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. विराजमान थे। इनके सान्निध्य में शास्त्र श्रवण कर आपकी वैराग्य की भावना बलवती होती गई। आचार्य श्री वहां से विहार करके खाचरोद पधारे। आप भी पूज्य आचार्य देव के साथ विहार करके खाचरोद आये खाचरोद में आपने गुरुदेव श्री से विनम्र विनती करके दीक्षा लेने की हार्दिक इच्छा व्यक्त की। तब आचार्य श्री ने श्री जैन संघ खाचरोद द्वारा कृत उत्सव के साथ श्री रामरतनजी को आषाढ़ कृष्ण २ सं. १९५४ को शुभ समय में प्रव्रज्या प्रदान की। आपका दीक्षा नाम श्री यतीन्द्र विजय दिया गया। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् आप श्री गुरुदेव की सेवा करते रतलाम नगर में पधारे और प्रथम चातुर्मास यहीं किया। आप श्री ने श्री संजय श्री गिरनारजी, श्री आबूजी, श्री केशरियाजी आदि अनेक तीर्थों की तीर्थ यात्राएं की। आप श्री की निश्रा में गुढ़ा बालोतरा से जैसलमेर का छरीपालता संघ निकाला गया। श्री पालीताना तीर्थ में आपने उपाधान तप की भव्य आराधना करवाई । धराद, रानापुर, उज्जैन, बागरा, सियाणा, आकोली आदि अनेक स्थानों पर उपाधान तप राजेन्द्र-क्योति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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