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________________ श्रद्धार्चन एवं वन्दना | ५७ 000000000000 000000000000 पर INNI MITHS C... WATI - आर्या श्री उगमवती जी इनके पदार्पण से हमें मानों एक नई मदद मिल गई। आनन्द का अमृत सरोवर यदि कहीं लहराता हुआ नहीं देखा हो तो मेरे पूज्य गुरुदेव श्री के दर्शन कर कोई मुनिराजों का श्रम सार्थक हुआ, श्री माताजी महाभी उसे प्रत्यक्ष देख सकता है। राज का स्वास्थ्य क्रमशः सुधरने लगा। गुरुदेव श्री की कृपा देखिए कि मुनियों को सन्देश भेजा कि श्री माताजी प्रतिपल मुस्कराता, हंसता चेहरा मिश्री सी मीठी वाणी महाराज के स्वास्थ्य के लिए अधिक रुकना पड़े तो भी आत्मीयतापूर्ण सजीव व्यवहार, कुल मिलाकर गुरुदेव श्री रुकें। के व्यक्तित्व को आनन्द के अमृत सरोवर की उपमा से उपमित करते हुए एक सहज वास्तविकता का बोध दया करुणा समता और श्रेष्ठता के अमर प्रतीक होता है। पूज्य गुरुदेव श्री का मैं हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ। मेरी संयम यात्रा का प्रारम्भ गुरुदेव श्री की ही सद्प्रेरणा का फल है । विगत छब्बीस वर्ष से मैं संयम में हूँ। D श्री दर्शनराम जी महाराज इस बीच अनेक बार पूज्य गुरुदेव श्री की सेवा का सौभाग्य [अखिल भारतीय स्नेही सम्प्रदाय के भूतपूर्व आचार्य मुझे मिला । इस दीर्घ सान्निध्यता के सैकड़ों अनुभव हैं वे राम द्वारा, केलवाड़ा] प्रेरक संस्मरण बनकर आज भी मेरे जीवन में काम आ मुझे यह सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि पूज्य अम्बा रहे हैं। मैं उन्हें गिनाने बैलूं तो मैं लिखते थक जाऊँगी गुरु अभिनन्दन नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रही है। और पाठक पढ़ते थक जायेंगे। उन अनेकों संस्मरणों में से वस्तुतः यह एक सुसुप्त जन-समाज को जागृत करने का एकाध यहाँ अंकित करना चाहूँगी । सुप्रयास है । इसमें गुरु-अभिनन्दन शब्द का प्रयोग तो बहुत लगभग बारह वर्ष पूर्व की बात है। श्री माताजी ही महत्त्वपूर्ण है। "गुः शब्द स्त्वन्ध कारः कः शब्द महाराज (श्री सौभाग्य मुनिजी और मेरी माता श्री) स्तन्निवारकः" इस व्याकरण व्युत्पत्ति लभ्यार्थ से गुरुदेव सूर्य किसी मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो गये थे। हम इनकी की भाँति हृदय का अन्धकार दूर कर देते हैं। इस असार इस स्थिति से बड़े चिन्तित थे। माताजी महाराज कुछ भी संसार-सागर से पार जाने के लिए गुरु ही एकमात्र बात मानने को तैयार नहीं थे, इलाज भी नहीं ले रहे थे। अवलम्बन है। कोई भी सम्प्रदाय क्यों न हो यह निर्विवाद जो इलाज इन्हें विवश कर किया उसमें सफलता भी नहीं सत्य है कि गुरु का आश्रय तो सर्व को ग्रहण करना ही मिली थी। उस समय मुझे गुरुदेव श्री तथा भाई महाराज पड़ता है। गुरु की महिमा ईश्वर से भी ज्यादा है (गुरु साहब की बड़ी याद आई, किन्तु गुरुदेव श्री भीलवाड़ा के मिलियां गोविन्द पावे)। गुरु का स्तवन संसार के पास थे। हम गोगुन्दा थे। इतनी लम्बी दूरी थी हमारे त्रिदेवों की उपमा से किया जाता है। यदि गुरु में तामसबीच में । मुझे कोई सम्भावना नहीं थी कि हमें गुरु दर्शन पन आता है तो शंकर रूप समझना चाहिए। रजोगुण मिल पायेंगे। उस समय एक और कठिनाई यह थी कि आने पर ब्रह्मा का रूप है। तथा वैसे ही सत्त्वगुण रूप में गुरुदेव श्री कुल चार ठाणा ही थे। ऐसी स्थिति में किन्हीं विष्णु रूप की उपमा दी है। मुनियों के पधारने की सम्भावना भी नहीं थी, फिर भी युग-युग में समय-समय पर होने वाले अवतारों व माताजी महाराज की बीमारी के समाचार तो हमने तीर्थंकरों ने भी सद्गुरु की महामहिमा का मुक्त कंठ से भेजे ही। गुणगान किया है । गुरु-शिष्य संवाद परम्परा से ही संसार गुरुदेव श्री के असीम दयालु हृदय का परिचय मुझे में ज्ञान वृद्धि हुई है। उपनिषद्, पुराणादि ग्रन्थों में भी तब अनायास मिल गया जब स्वयं कठिनाई सहकर भी श्री गुरु-शिष्य संवाद रूप ज्ञान का ही संग्रह है। अत: अज्ञान भाई महाराज और मदन मुनिजी इन दोनों मुनिराजों को ध्वान्त विनाशक प्रभाकर गुरु का अभिनन्दन उचित व हमें दर्शन देने को तुरन्त भेजे । कूल चार-पाँच दिन में ही सर्वमान्य एवम् सर्व पूज्य है । मुनिराज गोगुन्दा पहुंच गये। ....... . . 1/1A - SP. ptinelibrary A .......... .
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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